ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
छठी दोपहर
क्रमागत पिछली दोपहर से आगे
सत्ती की मृत्यु ने माणिक मुल्ला के कच्चे भावुक कवि-हृदय पर बहुत गहरी छाप छोड़ी थी और नतीजा यह हुआ था कि उनकी कृतियों में मृत्यु की प्रतिध्वनि बार-बार सुनाई पड़ती थी।
इसी बीच में उनके भइया का तबादला हो गया और भाभी उनके साथ चली गईं और घर माणिक की देख-भाल में छोड़ दिया गया। माणिक को अकेले घर में बहुत डर लगता था और अक्सर लगता था कि जैसे वे कंकालों के सुनसान घर में छोड़ दिए गए हों। उन्हें पढ़ने का शौक था पर अब पढ़ने में उनका चित्त भी नहीं लगता था उनकी जेब भी भइया के जाने से बिलकुल खाली हो गई थी और वे कोई ऐसी नौकरी ढूँढ़ रहे थे जिसमें वे नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई भी कायम रख सकें, इन सभी परिस्थितियों ने मिल कर उनके हृदय पर गहरी छाप छोड़ी थी और पता नहीं किस रहस्यमय आध्यात्मिक कारण से वे अपने को सत्ती की मृत्यु का जिम्मेदार समझने लगे थे। उनके मन की धीरे-धीरे यह हालत हो गई कि उन्हें मुहल्ला छोड़ कर ऐसी जगहें अच्छी लगने लगीं जैसे - दूर कहीं पर सुनसान पीपल तले की छाँह, भयानक उजाड़ कब्रगाह, पुराने मरघट, टीले और खड्ड आदि। उन्हें चाँदनी में कफन दिखाई देने लगे और धूप में प्रेयसी की चिता की ज्वालाएँ।
तब तक हम लोगों की माणिक मुल्ला से इतनी घनिष्ठता नहीं हुई थी अत: इस प्रकार की बैठकें नहीं जमती थीं और दिन-भर भटकने के बाद माणिक अक्सर चाय-घरों में जा कर बैठा करते थे। चाय-घरों की चहल-पहल में थोड़ा-सा मन बहल जाया करता है।
(लेकिन यह मैं बता दूँ कि माणिक मुल्ला का यह खयाल बिलकुल गलत था कि सत्ती की मृत्यु हो गई है, सत्ती सिर्फ बेहोश हो गई थी और उसी हालत में चमन ठाकुर उसे ताँगे पर ले गए थे क्योंकि बदनामी के डर से महेसर दलाल नहीं चाहते थे कि वे लोग एक क्षण भी मुहल्ले में रहें। पर सत्ती कहाँ थी इसका पता बाद में माणिक को लगा।)
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