ई-पुस्तकें >> सूरज का सातवाँ घोड़ा सूरज का सातवाँ घोड़ाधर्मवीर भारती
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'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनंत शक्तियाँ परस्पर-संबद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
(यहाँ पर मैं यह साफ-साफ कह दूँ कि या तो कहानी की विषय-वस्तु के कारण हो, या उस दिन की सर्वग्रासी उमस के कारण, लेकिन उस दिन माणिक मुल्ला की कथा-शैली में वह चटपटापन नहीं था जो पिछली दो कहानियों में था। अजब ढंग से नीरस शैली में वे विवरण देते चले जा रहे थे और हम लोग भी किसी तरह ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे थे। उमस बहुत थी। कहानी में भी, कमरे में भी।)
खैर, तो उसी समय महेसर दलाल की निगाह में एक लड़की आई जिसके बाप मर चुके थे। माँ की अकेली संतान थी। माँ की उम्र चाहे कुछ रही हो पर देख कर यह कहना कठिन था, माँ-बेटी में कौन उन्नीस है कौन बीस। कठिनाई एक थी, लड़की इंटर के इम्तहान में बैठ रही थी हालाँकि उम्र में तन्ना से बहुत छोटी थी। लेकिन मुसीबत यह थी कि उस रूपवती विधवा के पास जमीन-जायदाद काफी थी। न कोई देवर था, न कोई लड़का। अत: उसकी सहायता और रक्षा के खयाल से तन्ना को इंटरमीडिएट पास बता कर महेसर दलाल ने उसकी लड़की से तन्ना की बात पक्की कर ली मगर इस शर्त के साथ कि शादी तब होगी जब महेसर दलाल अपनी लड़की को निबटा लेंगे और तब तक लड़की पढ़ेगी नहीं।
चूँकि लड़की की ओर से भी सारा इंतजाम महेसर दलाल को करना था अत: वे ग्यारह-बारह बजे रात तक लौट पाते थे और कभी-कभी रात को भी वहीं रह जाना पड़ता था क्योंकि लड़ाई चल रही थी और ब्लैक-आउट रहता था, लड़की का घर उसी मुहल्ले की एक दूसरी बस्ती में था जिसमें दोनों तरफ फाटक लगे थे, जो ब्लैकआउट में नौ बजते ही बंद हो जाते थे।
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