ई-पुस्तकें >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
110. 'काली' को इष्ट रूप में स्वीकार करने में अपने संशय के दिनों को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा, ''मैं काली से कितनी घृणा करता था! और उसके सभी ढंगों से! वह मेरे छह वर्षों के संघर्ष की भूमि थी - कि मैं उसे स्वीकार नहीं करूँगा। पर मुझे अन्त में उसे स्वीकार करना पड़ा। श्रीरामकृष्ण ने मुझे उसे अर्पित कर दिया था, और अब मुझे विश्वास है कि जो भी मैं करता हूँ उस सब में वह मुझे पथ दिखलाती है और जो उसकी इच्छा होती है, वैसा मेरे साथ करती है। ... फिर भी मैं इतने दीर्घकाल तक लड़ा। मैं भगवान् रामकृष्ण को प्यार करता था और बस इसी बात ने मुझे अविचल रखा। मैंने उनकी अद्भुत पवित्रता देखी... मैंने उनके अद्भुत प्रेम का अनुभव किया। तब तक उनकी महानता का भान मुझे नहीं हुआ था। वह सब बाद में हुआ, जब मैंने समर्पण कर दिया। उस समय मैं उन्हें दिव्य-दृश्य आदि देखनेवाला एक विकृतचित्त शिशु समझता था। मुझे इससे घृणा थी। और फिर तो मुझे भी उसे (काली को) स्वीकार करना पड़ा।
''नहीं, जिस बात ने मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य किया, वह एक रहस्य है जो मेरी मृत्यु के साथ ही चला जायगा। उन दिनों मेरे ऊपर अनेक विपत्तियाँ आ पड़ी थीं।... यह एक अवसर था... उसने मुझे दास बना लिया। ये ही शब्द थे 'यह तुम्हारा दास; और श्रीरामकृष्ण ने मुझे उसको सौंप दिया।... आश्चर्यजनक! ऐसा करने के बाद वे केवल दो वर्ष तक जीवित रहे और उनका अधिकांश समय कष्ट में ही बीता। वे छह महीने भी अपने स्वास्थ्य और ओज को सुरक्षित न रख सके। ''जानते ही होंगे, गुरु नानक भी ऐसे ही थे, केवल इस बात की प्रतीक्षा में कि कोई शिष्य ऐसा मिले, जिसे वे अपनी शक्ति दे सकते। उन्होंने अपने परिवारवालों की उपेक्षा की - उनके बच्चे उनकी दृष्टि में बेकार थे। फिर उन्हें एक बालक मिला, जिसे उन्होंने अपनी शक्ति दी। तब कहीं वे शान्ति से मर सके।
''तुम कहते हो कि भविष्य श्रीरामकृष्ण को काली का अवतार कहेगा? हाँ, मैं समझता हूँ कि निस्सन्देह उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही श्रीरामकृष्ण के शरीर का निर्माण किया था।
''देखो, मैं बिना यह विश्वास किये नहीं रह सकता कि कहीं कोई ऐसी शक्ति है, जो अपने को नारी मानती है और काली अथवा माँ कही जाती है... और मैं ब्रह्म में भी विश्वास करता हूँ.. किन्तु क्या वह सदैव ऐसा नहीं है? क्या इस शरीर में कोषाणुओं का समूह ही व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करता; क्या, केवल एक नहीं, बल्कि अनेक मस्तिष्ककेन्द्र ही चेतना की सृष्टि नहीं करते?.. जटिलता में एकता! ठीक ऐसी ही बात ब्रह्म के सम्बन्ध में भिन्न क्यों हो? वह ब्रह्म है। वह एक है। फिर भी - फिर भी - वह देह-वर्ग भी है।''
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