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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602
आईएसबीएन :9781613012598

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


101. जब स्वामी विवेकानन्द के एक शिष्य ने उनसे लौकिक व्यवहारशीलता की कोई बात कही तब वे झल्लाकर कहने लगे, ''योजनाएँ! योजनाएँ! यही कारण है कि... पश्चिम के लोग कभी धर्म की सृष्टि नहीं कर सकते! यदि तुम लोगों में से किसी ने की तो केवल उन थोड़ेसे कैथोलिक सन्तों ने जिनके पास कोई योजनाएँ नहीं थी। योजना बनाने वालों ने कभी धर्म की शिक्षा नहीं दी।''

102. पश्चिम का सामाजिक जीवन एक अट्टहास है; किन्तु वह भीतर से रुदन है. उसका अन्त सिसकी में होता है। समस्त आमोद-प्रमोद और चापल्य सतह पर है। वस्तुत: वह दुखान्त तीव्रता से पूर्ण है। पर यहाँ, वह बाहर से दुःखी और उदास है, परन्तु उसमें भीतर निश्चिन्तता और आह्लाद है।

हमारे यहाँ एक सिद्धान्त है कि यह सृष्टि केवल लीला के लिए ईश्वर की अभिव्यक्ति है, और लीला के लिए अवतारों ने पृथ्वी पर जन्म लिया एवं जीवन व्यतीत किया। खेल, यह केवल खेल ही था। ईसा को कूस पर क्यों चढ़ाया गया? वह लीला मात्र थी। यही बात जीवन की है। प्रभु के साथ खेल मात्र। कहो, 'यह सब खेल है, यह सब खेल है'। क्या 'तुम' सचमुच कुछ करते हो?

103. मुझे विश्वास हो चला है कि नेता का निर्माण एक जीवन में नहीं होता है। उसे इसके लिए जन्म लेना होता है। कारण यह है कि संगठन और योजनाएँ बनाने मे कठिनाई नहीं होती; नेता की परीक्षा, वास्तविक परीक्षा विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी सर्व-सामान्य सम्वेदनाओं की दिशा मे एकत्र रखने में है। यह केवल अनजान में ही किया जाना सम्भव है, प्रयत्न द्वारा कदापि नहीं।

104. प्लेटो के प्रत्ययों के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए स्वामीजी ने कहा, ''और इसलिए तुम देखते हो, यह सब केवल उन महान् प्रत्ययों की क्षीण अभिव्यक्ति मात्र है। केवल वे ही सत्य और पूर्ण हैं। कहीं तुम्हारा प्रत्ययात्मक आदर्श - 'तुम' है, तुम्हारा यह तुम उसकी अभिव्यक्ति का एक प्रयास है। प्रयास में अभी भी अनेक प्रकार की कमियाँ हैं। फिर भी बढ़े चलो! किसी दिन तुम आदर्श की अभिव्यक्ति कर सकोगे।''

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