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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602
आईएसबीएन :9781613012598

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


85. परोपकार ही धर्म है; परपीड़न ही पाप। शक्ति और पौरुष पुण्य है; कमजोरी और कायरता पाप। स्वतन्त्रता पुण्य है, पराधीनता पाप। दूसरों से प्रेम करना पुण्य है, दूसरों से घृणा करना पाप। परमात्मा में और अपने आप में विश्वास पुण्य है; सन्देह ही पाप है। एकता का ध्यान पुण्य है, अनेकता देखना ही पाप है। विभिन्न शास्त्र केवल पुण्य-प्राप्ति के ही साधन बताते हैं।

86. जब तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है, तब वह भावनाओं के स्रोत हृदय द्वारा अनुभूत होता है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकित हो उठते हैं, और तभी जैसे मुण्डकोपनिषद् (2-2-8) में कहा है 'हदय-ग्रन्थि खुल जाती है, सब संशय मिट जाते हैं।'

जब प्राचीन काल में ज्ञान और भाव ऋषियों के हृदय में एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे, तब सवोंच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की और तभी वेद और अन्य शास्त्र रचे गये। इसी कारण, उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि वैदिक स्तर पर मानो भाव और ज्ञान की दोनों समानान्तर रेखाएँ अन्तत: मिलकर एकाकार हो गयी हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं।

87. विभिन्न धर्मों के ग्रन्थ विश्वप्रेम, स्वतन्त्रता, पौरुष और निःस्वार्थ उपकार की प्राप्ति के अलग अलग मार्ग बताते हैं। प्रत्येक धर्म-ग्रन्थ, पुण्य क्या है और पाप क्या है, इस विषय में प्राय: भिन्न है, और एक दूसरे से ये ग्रन्थ अपने-अपने पुण्य-प्राप्ति के साधनों और पाप को दूर रखने के मार्गों के विषय में लड़ते रहते हैं, मुख्य साध्य या ध्येय की प्राप्ति की ओर कोई ध्यान नहीं देता। प्रत्येक साधन कम या अधिक मात्रा में सहायक तो होता ही है और गीता (18-4-8) कहती है सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:। इसलिए साधन तो कम या अधिक मात्रा में सदोष जान पड़ेंगे। परन्तु अपने अपने धर्म-ग्रन्थ में लिखे हुए साधन द्वारा ही हमें सर्वोच्च पुण्य प्राप्त करना है, इसलिए हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। परन्तु उनके साथ साथ विवेक-बुद्धि से भी काम लेना चाहिए। इस प्रकार ज्यों-ज्यों हम प्रगति करते जायँगे, पाप-पुण्य की पहेली अपने आप सुलझती चली जायगी।

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