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सरल राजयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :73
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9599
आईएसबीएन :9781613013090

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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण


और एक प्रकार के ध्यान का विषय बताया जाता है:- सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है - उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो; फिर उस ज्योति के अन्दर और एक ज्योतिर्मय आकाश की भावना करो; वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है - परमात्मस्वरूप ईश्वर है। हृदय में उसका ध्यान करो। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, महाशत्रु को भी क्षमा कर देना, सत्य, आस्तिक्य - ये सब विभिन्न व्रत हैं। यदि इन सब में तुम सिद्ध न रहो, तो भी दुःखित या भयभीत मत होना। प्रयत्न करो, धीरे-धीरे सब हो जाएगा। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़कर जो भगवान् के शरणागत हुए हैं, उनमें तन्मय हो गए हैं, जिनका हृदय पवित्र हो गया है, वे भगवान् के पास जो कुछ चाहते हैं, भगवान् उसी समय उसकी पूर्ति कर देते हैं। अत: ज्ञान, भक्ति या वैराग्य योग से उनकी उपासना करो।

''जो किसी के प्रति द्वेषभाव नहीं रखते, जो सब के मित्र हैं, जो सब के प्रति करुणासम्पन्न हैं, जिनका अहंकार चला गया है, जो सदैव सन्तुष्ट हैं, जो सर्वदा योगयुक्त, यतात्मा और दृढ़ निश्चयवाले हैं, जिनका मन और बुद्धि मुझमें अर्पित हो गयी हैं, वे ही मेरे प्रिय भक्त हैं। जिनसे लोग उद्विग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्विग्न नहीं होते, जिन्होंने अतिरिक्त हर्ष, दुःख, भय और उद्वेग त्याग दिया है, ऐसे भक्त ही मेरे प्रिय हैं। जो किसी का भरोसा नहीं करते, जो शुचि और दक्ष हैं, सुख और दुःख में उदासीन हैं, जिनका दुख चला गया है, जो निन्दा और स्तुति में समभावापन्न हैं, मौनी हैं, जो कुछ पाते हैं, उसी में सन्तुष्ट रहते हैं, जिनका कोई निर्दिष्ट घर-बार नहीं, सारा जगत् ही जिनका घर है, जिनकी बुद्धि स्थिर है, ऐसे व्यक्ति ही मेरे प्रिय भक्त हैं।''* (* गीता, 12/13-19)  ऐसे व्यक्ति ही योगी हो सकते हैं।

* *

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