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सरल राजयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :73
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9599
आईएसबीएन :9781613013090

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स्वामी विवेकानन्दजी के योग-साधन पर कुछ छोटे छोटे भाषण


दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, ''मैं मन नहीं हूँ मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ। मैं अपने मन की क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ।” इससे प्रतिदिन विचार और भावना से अपना तादात्म्यभाव कम-कम होता जाएगा, यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से सम्पूर्णतया पृथक् कर सकोगे और प्रत्यक्ष अनुभव कर सकोगे कि मन तुमसे अलग है।

इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जाएगा और तुम उसके ऊपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। योगी होने की प्रथम स्थिति है - इन्द्रियों से परे हो जाना। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।

जितना सम्भव हो सके, अकेले रहो। तुम्हारे आसन की ऊँचाई सुविधाजनक हो। प्रथम कुशासन बिछाओ, उस पर मृगचर्म और उसके ऊपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो और वह स्थिर हो।

चूंकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अत: हमें उनकी सृष्टि नहीं करनी चाहिए। हमें अपने मन से सारे विचार दूर हटाकर उसे रिक्त कर देना चाहिए। ज्योंही विचार आए, त्योंही उन्हें दूर भगाना चाहिए। इस कार्य में समर्थ होने के लिए हमें जड़ वस्तु और देह के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुत: मनुष्य का समस्त जीवन ही इसे साधने का प्रयास है।

प्रत्येक ध्वनि का अपना अर्थ होता है। हमारी प्रकृति में ये दोनों परस्पर-सम्बद्ध हैं।

हमारा सर्वोच्च आदर्श ईश्वर है। ईश्वर का ध्यान करो। हम ज्ञाता को नहीं जान सकते, हम तो वही हैं।

अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत् हमारा दर्पण है। यह छोटासा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटासा दर्पण है; समस्त विश्व ही हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिए, इससे हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि वह तो हमारा ही स्वरूप है। हम जन्मरहित और मृत्युरहित हैं तथा हमें प्रेम ही करते रहना चाहिए।

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