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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

वह प्राण लेकर तेजी से भाग गया। उसमें इतना भी साहस शेष न था कि मुड़कर देख भी सके।

दूसरे ही दिन से राणा साहब ने रेखा पर कड़ी दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी। यह उसे तब पता लगा जब वह कालेज से बाहर निकली। फाटक पर ही माली को देख वह चकित रह गई। माली ने बढ़कर उसकी पुस्तकें हाथ में ले लीं और बोला- ‘बाबा ने भेजा है.. तुम्हें साथ लाने को।'

'वह क्यों?'

'मालिक की बात मालिक ही जानें... मुझे तो यही आज्ञा है।'

‘क्या आज्ञा है?'

'यही कि सवेरे जाते समय वह तुम्हें मोटर से पहुंचा जाया करें और शाम को छुट्टी हो जाने पर मैं तुम्हें ले आया करूं। आजकल अकेले जानेँ का समय नहीं। चोर-लफंगे राह चलते छेड़खानी करने में नहीं हिचकते अब तो बीबीजी। पढ़े-लिखे लोग भी उनका पेशा पकड़ने लगे हैं। आए दिन अखवारों में आप पढ़ती ही होगी।'

माली की सन्देहयुक्त दृष्टि देखकर वह सब कुछ समझ गई। यह भी समझ गई कि यह सीख क्यों और किसलिए है? रेखा जब घर पहुंची तो अपन कमरा देख चकित रह गई। वहां का सारा रूप ही बदल चुका था। शम्भू से पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि अब बाबा यहां सोया करेंगे और उसे भीतर मां वाले कमरे में सोना होगा। उसकी पुस्तकें, उसके कपड़े सब उस कमरे में पहुंच चुके थे। यह देख रेखा क्रोध से झुंझला उठी, वह माली के एक ही संकेत से सव-कुछ समझ गई थी। उसने मां या किसी और से अधिक पूछताछ करना उचित नहीं समझा।

दो, दिन बीत गए, वह चुपचाप घरवालों के इशारों पर नाचती रही। सवेरे बाबा दफ्तर जाते समय उसे गाडी से. कॉलेज उतार जाते और छुट्टी होते ही माली फाटक पर उपस्थित हो जाता। घर में हर कोई उसे शंकित दृष्टि से देखता। मां में जो सरसता वह देखती आई थी, वह अब न थी। पर्याप्त परिवर्तन हो गया था। यद्यपि वह मुंह से कुछ नहीं बोली थीं पर रेखा सब-कुछ समझ रही थी।

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