ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
एकाएक तबस्सुम के पांव लड़खड़ाए और वह लड़खड़ाकर स्टेज पर गिर गई। पर्दा गिरा दिया गया। हाल के भीतर एक अजीब-सा हो-हल्ला उठा और लोग स्टेज की ओर बढ़े। थिये- टर के अधिकारी भीड़ को रोकने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगे। थोडी देर में दर्शक-समूह ने धीरे-धीरे बाहर जाना प्रारम्भ किया। रमेश और रेखा भी भीड़ को चीरते हुए थियेटर के बाहरी बरामदे तक पहुंच गए। मोहन उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था।
बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी। बादल थे कि बस आज ही बरस जाना चाहते थे। हर कोई तागों की ओर लपक रहा था। रेखा और रमेश अपनी गाड़ी न लाने पर पछता रहे थे। वे अभी खड़े यह सोच ही रहे थे कि मोहन ने पास आकर कहा- ‘आपको शायद माल रोड की ओर जाना है।’
'जी... परन्तु.... ’ रेखा स्पष्ट उत्तर देना चाहकर भी न दे सकी।
'मैं भी उसी ओर जा रहा हूं... अपनी गाड़ी है, आइए- आइए।’ मोहन सामने खड़ी एक घोडागाड़ी की ओर बढ़ गवा।
'रेखा, हमें एक अजनबी से इस तरह सम्बन्ध स्थापित करना ठीक नहीं। सफेदपोशों में भी चोर-बदमाशों की कमी नहीं - दूसरे यह आदमी मुझे भला नहीं मालूम होता...' रमेश ने बास्तविकता प्रकट कर दी।
'हमें अपना मतलब निकालना है - चाहे वह कोई भी हो। फिर हम दो हैं - डर किस बात का है? आप उस व्यक्ति से डर तो नहीं रहे हैं?'
'इसमें डरने की क्या बात है? शरीफ का बचकर चलना ही बुद्धिमानी है? यदि इसी वात पर तुली हो कि जाऊंगी तो उसी की गाड़ी पर, तो तुम स्वतन्त्र हो, जा सकती तो। मुझे अशिष्टों का साथ पसन्द नहीं।' कहते-कहते रमेश जरा गर्म हो गया।
'आप बहुत शीघ्र मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं. मेरी समझ से तो उसने कोई अशिष्टता नहीं की।
'इतना कुछ हो गया और तुम्हारी दृष्टि में उसका कोई महत्व ही नहीं, जेसे उसने जो कहा, शराफत की दृष्टि से ठीक था?
'मुझे तो हंसी आ रही थी..' भला वह क्या जाने कि मैं आपकी कौन हूं... आप ही कहिए, यदि उसके स्थान पर आप होते तो क्या इसी तरह का प्रश्न न करते?'
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