ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
कहते-कहते वह रुक गई। उसने उपस्थित व्यक्तियों की ओर इस तरह देखा, जैसे उनकी उपस्थिति उसे खटकती हो। तिवारी उसके मन की बात समझ गया। उसने सबको बाहर जाने का संकेत किया। उनके चले जाने पर तबस्सुम को सम्बोधित कर बोला- 'कहो, क्या कहना चाहती हो? ’
'आप तलाशी न लें। चोर मैं आपके हवाले कर दूंगी।'
‘कहो, कौन है वह?'
'थोडी देर प्रतीक्षा करनी होगी।'
'कब तक?'
'परसों रात नौ बजे तक। रोशन थियेटर में मेरा नाच है।’
‘तो फिर...’
'आपका अपराधी उस समय उस थियेटर में होगा, नाच से पहले मैं उसे आपके हवाले कर दूंगी.. परन्तु उसे बन्दी बनाना आपका काम होगा।’
'घबराओ नहीं... सब प्रबन्ध हो जाएगा..... परसों रात ठीक नौ बजे.. किन्तु किसी प्रकार का धोखा तुम्हारे लिए खतरनाक साबित होगा।'
'विश्वास कीजिए इन्सपेक्टर साहब!'
तिवारी के जाते ही तबस्सुम ने झट दरवाजा बन्द कर भीतर से चटखनी लगा दी और तब एक लम्बी साल लेकर वह निश्चेष्ट पड गई। उसकी आंखो से आंसू बह निकले। अभी आसन्न चिन्ता से वह मुक्त भी न होने पाई थी, बहते आंसू रुक भी न सके थे कि उसके मुख से एक हल्की-सी चीख निकल गई। सामने मोहन खडा क्रोध से उसकी ओर घूर रहा था। उसकी आखें लाल हो रही थीं, मानो रक्त के छींटों से धोई हों। उसकी मुखाकृति पर भयंकर पैशाचिकता देख, तवस्सुम का रोम-रोम सिहर उठा। वह उसे अपनी आंखों से घूरता हुआ समीप आ गया। विचित्र मुंह बनाकर वोला-’परसों रात ठीक नौ बजे।'
भय और कम्पन से वह जैसे हतप्रभ हो गई। वह यह जानकर और भी किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई कि उसने सभी बातें सुन ली हैं। उसको चुप और भयभीत देख, मोहन एक भद्दी हंसी हंस पड़ा। वह हंसी इतनी तेज और भयानक थी, कि कमरे की दीवारें तक प्रकम्पित हो उठीं।
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