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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'कहते थे पुलिस को सन्देह है कि इसमें कुछ भेद है, अत: वह हार उनके पास रहना आवश्यक है।'

'यह अच्छा नहीं हुआ..... रेखा।'

'क्यों? क्या बात है?'

'कुछ नहीं। मैंने तुम्हें सच्चे मन से प्रेम किया है, अतएव उसी प्रेम की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि वह हार तुम्हारे ही गले की शोभा बनेगा। मैं गरीब अवश्य हूं पर चोर नहीं।' ‘परन्तु तुम्हें चोर कहता कौन है?'

मोहन ने बात सुनी-अनसुनी कर दी और झट खिडकी फांदकर अन्धेरे में लुप्त हो गया। उसका ध्यान अब रेखा और उसके प्रेम से कोसोँ दूर, पुलिस के सन्देह पर आ लगा था। उसे विश्वास था कि जौहरी के पकडे जाने के साथ ही, उसके अपने प्राण संकट में पड़ जाएंगे और वर्षों से पडा हुआ यह नकाब उसके चेहरे से उतर जाएगा।

मोहन तेजी से लम्बे-लम्वे डग भरता होटल की सीढियां चढ़ने लगा। जैसे ही वह ऊपर पहुंचा, अपने कमरे के सामने पुलिस के दो सिपाही देखकर रुक गया और दीवार की ओट में छिपकर उन्हें देखने लगा। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। किसी को न देख, कमरे के स्नान-गृह की खिड़की खोलकर धीरे से भीतर फांद गया। रबरसोल का जूता होने के कारण कोई शब्द नहीं हुआ। द्वार की ओट लेकर जव उसने कमरे में चारों ओर देखा तो कांपकर रह गया।

कमरे में इन्सपेक्टर तिवारी, तबस्सुम और होटल का मैने- जर वर्मा खडे आपस में बातें कर रहे थे। द्वार से हटकर वह लटके हुए पर्दे के पीछे हो गया और उसकी बातें सुनने लगा। तिवारी मैनेजर से कह रहा था- 'मिस्टर वर्मा। तो आपको विश्वास है कि और कोई व्यक्ति तबस्सुम से मिलने नहीं आता।'

'जहां तक मुझे ज्ञात है, इसके अतिरिक्त और कोई नहीं आता।'

'तबस्सुम, तो हार का चोर भी इन्हीं में से एक होना चाहिए।'

'इन्सपेक्टर साहब, मैं आपको कैसे विश्वास दिलाऊं कि मुझे इस हार के विषय में कुछ भी नहीं मालूम।'

'देखो, पुलिस को धोखा देना स्वयं को धोखा देना है... शायद तुम उसका नाम लेने से डरती हो या तुम्हारा उसके साथ कोई गहरा सम्बन्ध है.. चाहो तो पुलिस तुम्हारी सहायता कर सकती है।'

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