ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
पाँच
मोहन अपने होटल के कमरे में लेटा सिगरेट का धुआं उड़ा रहा था। तभी सीढियों पर किसी के चढ़ने की आहट उसके कानों में आई। आहट निकटतर होते-होते द्वार तक आ गई। फिर भी वह मौन लेटा रहा। आगन्तुक ने भीतर प्रवेश करते हुए पूछा- 'आज फिर शीघ्र लौट आए?'
उसका अनुमान गलत न था। प्रश्न करने वाली तबस्सुम थी। कुछ क्षण चुप रहकर उत्तर दिया - ‘बाहर मन नहीं लगा।'
'मन नहीं लगा या मिलने वाला पक्षी उड़ गया! ’
'तबस्सुम, होश में रहो। हास-परिहास का भी समय होता है।’
‘तो क्या अब बात करने से पूर्व मुझे समय देखना होगा। मोहन, मुझे अब इतना अधिकार भी नहीं कि तुमसे हास-परिहास में ही प्रेम कर सकूं।'
'प्रेम हास-परिहास तक ही सीमित है क्या?
'तुम्हारा व्यवहार देखकर तो यही प्रतीत होता है।'
'इसीलिए मैंने तुमसे कभी प्रेम नहीं किया।’
'इसीलिए न कि सोता स्वयं बहकर प्यासे के पास आ गया और प्यासे को यह कहने का अवसर ही नहीं दिया कि वह प्यासा है।'
'पुरुष की यह निर्बलता स्वाभाविक है। वह स्त्री देखकर अन्धा हो जाता है, मुंह के बल गिर पड़ता है।'
'पुरुष का क्या है, वह तो गिरकर भी उठ सकता है, किन्तु स्त्री उठने का प्रयत्न करने के पूर्व ही मसल दी जाती है।'
'यह समाज का दोष है, मेरा नहीं।'
'समाज.... समाज.... वह समाज जिसमें तुम जैसे उज्ज्वल वस्त्रधारी दानव भी भलेमानस कहे जा सकते हैं और हम संसार त्यागकर जोगिनें भी बन जाएं तो नागिनें ही समझी जाएं ऐसे समाज का क्या?'
'भाषण सुनने का तो मैं अभ्यस्त नहीं.. यदि तुम्हारी बातों का तांता यू ही चलता रहा तो मैं यहां से चला जाऊंगा।'
'वह तो तुम एक दिन करोगे ही। मैं जलकर राख हो गई इसकी मुझे चिन्ता नहीं, परन्तु जिस घर में तुम अब आग लगाने वाले हो, वह आग मुझसे नहीं देखी जाएगी।'
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