ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
चार
लाला छक्कनमल बडी नम्रता से मुस्कराता हुआ ग्राहक को फांसने के प्रयत्न में लगा हुआ था। आज का ग्राहक एक नव-विवाहित जोडा था। पत्नी कभी चमकीले गहनों को देखती और कभी पति से दृष्टि मिलाकर हंस देती।
उस मुस्कान में घायल कर देने बाली प्रार्थना छिपी थी, जिसे छक्कनमल ध्यान से देख और समझ रहा था। यूं तो उसकी दुकान एक मध्यम श्रेणी की दुकान थी, परन्तु कमाईँ में वह सब दुकानदारों से आगे था। शहर भर की चोरी का माल लेने और बेचने का धन्धा उसके यहां बडी सुगमता से चलता था।
उसी समय बाहरी दरवाजे से इन्स्पेक्टर तिवारी ने भीतर प्रवेश किया। छक्कनमल के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। यों तो प्राय: पुलिसवाले उसकी दुकान के चक्कर काटते रहते थे-- परन्तु तिवारी का आना कुछ और ही अर्थ रखता था। दस पुलिस वालों का मुकाबला वह अकेले करता था। घूस से बुरी तरह चिढ़ थी उसे। इसलिए उसके आते ही लालाजी के शरीर में कंपकंपी-सी होने लगती।
वह इस नए जोड़े को छोड, इन्स्पेक्टर तिवारी के पास आया और मुस्कराकर स्वागत करते हुए बोला- 'आइए इन्स्पेक्टर साहब!
'सुनाओ लाला, कैसी चल रही है?'
'भगवान की दया है!' कहते हुए लाला ने समीप खड़े अपने ही एक व्यक्ति को संकेत किया,’बिहारी, जरा इन्हें दिखलाना।' और स्वयं तिवारी को भीतर गद्दी पर ले आया।
'जलपान कीजिएगा?'
'धन्यवाद! मैं एक कार्य से आया हूं।' गद्दी पर बैठते हुए तिवारी ने कहा।
'कहिए, क्या सेवा करूं आपकी?'
'बड़े दिन हुए, राणा साहब एक हार ले गए थे आपसे।' ‘कौन राणा साहब?'
'पीली कोठी वाले।'
'ओह, याद आया!' माथे से पसीना पोंछते हुए वह बोला।
'वह हार कहां से आया?'
'कहां से क्या मतलब? मैं समझा नहीं।'
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