ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
राणा साहब और रेखा गोल कमरे से होते हुए भीतर वाले कमरे में आए। सामने रेखा की मां रजाई ओढ़ी लेटी हुई थी।
‘कैसी तबियत अब?'' राणा साहव ने पूछा।
'दिन से काफी अच्छी है।'
'अभी तक सोई नहीं मां!' रेखा ने पास ही पलंग पर वैठते हुए पूछा।
तुम लोगों की राह देख रही थी। कहो, शादी कैसी रही?' मां ने राणा साहब से पूछा जो पास की दहकती हुई अंगीठी के पास जा खड़े हुए थे।
‘बेटी से पूछ लो न.......।’
'आपको क्या लाज आती है?'
'नहीं तो... परन्तु जिस चाह और उत्सुकता से लडकियां देखती हैं और वर्णन कर सकती हैं वह भला हम...'
'लो मां, मैं ही वताती हूं......’ रेखा ने राणा साहब की बात काटते हुए कहा और होंठो पर जीभ फेरती हुई वोली-’धूम-धाम तो इतनी थी कि क्या वर्णन करूं। खाने की एक से एक बढ़िया चीज! और बारात की वह आवभगत कि कुछ न पूछो......’
'और दान-दहेज क्या दिया?’
'अब आईं असल बात पर।' राणा साहब हंसते हुए बोले, ‘तुम स्त्रियों को लेने के सिवा देना भी आता है?' ‘भला यह भी कोई कहने की बात है.. देखूंगी, रेखा की शादी पर क्या नहीं होता...'
रेखा यह सुनकर लजा-सी गई! उसने देखा, बाबा भी चुप हो गए हैं। उसने झट से बात का पहलू बदलते हुए कहा----'मां, बारात तो विदा होने दो, कल सब पता चल जाएगा।'
'अच्छा बेटा, जाओ, अब आराम करो। सवेरे कॉलेज जाना है।' राणा साहब प्यार से रेखा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले।
'और हां..' ज्योंही वह अपने कमरे की ओर जाने लगी, उन्होंने कहा-’साड़ी गीली हो रही है। इसे बदलकर दूसरी पहन लेना।'
'अच्छा बावा, कहते हुए रेखा बाहर चली गई। राणा साहब अपना कोट अलमारी में टांगते हुए बोले-’नीला सो गई क्या?'
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