ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'इससे तुम्हें क्या?'
उसने कांपते हाथों से हार पकड़ लिया और बोला-'यह कैसे हो सकता है?'
'मेरा हाथ छोड़ दो. देखो, वे सब आ रही हैं।'
मोहन ने शीघ्रता से पगड़ी पहन, मूछें लगा लीं और फिर नाविक बनकर बैठ गया। रेखा अपनी घबराहट मिटाने के उद्देश्य से सहेलियों के स्वागत के लिए आगे बढ़ गई और बोली -'क्यों? ले आईं आम?'
'तो क्या खाली हाथ आना था?' कमला ने उत्तर दिया और सबने अपनी झोलियां नाव में उड़ेल दीं। आमों का ढेर-सा लग गया।
'आज तो तुम लोगों ने बड़ा काम किया।' रेखा ने मुस्क- राते हुए कहा। घबराहट से अभी तक उसका दिल धडक रहा था। मालती ने उसके समीप आकर पूछा--’रेखा... तुम्हारे गले का हार !
'क्या हुआ...' उसने गले को टटोलते हुए बहाना बनाया और फिर होठों पर कृत्रिम मुस्कान लाते हुए बोली-’ओह'.. शायद घर पर ही भूल आई हूं।'
'अभी तो तुम्हार गले में ही था.. वही नाव में''
सब तेजी से आकर आमों के ढेर को टटोलने लगीं। नाविक ने सबकी दृष्टि अपने पर पडती देखी तो बोला-’यह रहा आपका हार।'
मालती ने उसके हाथ से झपटकर हार छीन लिया और चिल्लाई-’क्यों रे.. मजदूरी के साथ-साथ चोरी का धन्धा भी करता है.. नीच.. चोर..'
रेखा मौन खड़ी सब-कुछ देखती रही। बिना कोई शब्द मुंह से निकाले मालती के हाथ से हार लेकर उसने अपने गले में डाल लिया। मालती नाक सिकोडते हुए फिर बड़बड़ाई,’चलो ... ऐसे नीच की नाव में चलने से तो पैदल चलना भला...'
सबने हां मे हां मिलाई और रेखा को खींचते हुए वे उसे अपने संग घसीट ले चलीं। मोहन चुपचाप खडा सव देखता रहा, अपनी सफाई में वह एक शब्द भी न बोल सका।
रेखा कुछ पग चलकर रुक गई। उसने मुडकर देखा मोहन अबतक वहीं खडा एकटक उसे देख रहा था।
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