ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'यही एक भय मुझे भी परेशान किए है।'
मोहन मौन हो गया। किसी गहरी उलझन को सुलझाने लग गया। रेखा को मोहन का यह मौन अखर गया। बोली- ‘कोई और मार्ग है?'
'है..' मोहन ने उत्तर दिया।
'क्या?'
'मैं तुम दोनों के मार्ग से हट जाऊं।’
'मोहन, यह तुम क्या कह रहे हो?
'ठीक कह रहा हूं। वह अमीर है, उससे खुल्लमखुल्ला मिलने में भी तुम्हारे बाबा को कोई आपत्ति न होगी... लेकिन मैं उनकी दृष्टि में कुत्ते से भी गया गुजरा हूं..... गरीब जो ठहरा।'
‘परन्तु मैंने तो तुम्हें कभी गरीब की संज्ञा नहीं दी।’
'वह झूठ ही क्या कहते हैं..... रात के अन्धेरे में चोरों की भांति ही तो भटकता हुआ लुके-छिपे मिलने आता हूं?'
'यह आज तुम क्या बकवास करते जा रहे हो?'
'आखिर मेरी भी कोई इज्जत है?'
'इससे मुझे कब इन्कार है?'
'तो फिर बाबा से क्यों नहीं कहती?'
' कैसे कहूं?'
'यदि तुम डरती हो तो मैं कहूंगा।’
'मोहन..!'
'हां-हां.. इसमें डर ही क्या है? सवेरे तक यहीं पडा रहता हूं, अन्धेरा दूर होते ही सब भेद खुल जाएगा।'
'नहीं-नहीं, इतने दिनों का बना-बनाया घरौंदा क्षण-मात्र में धराशायी हो जाएगा।'
'और दूसरा मार्ग है भी तो नहीं.. तुमसे तो कुछ होना नहीं।'
'नहीं, तुम अभी जाओ.. मैं साहस करूंगी बाबा से कहने का?'
मोहन ने देखा, उसका फेंका पासा ठीक पड़ा है।
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