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पवहारी बाबा

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9594
आईएसबीएन :9781613013076

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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।


देखने में वे अच्छे लम्बे-चौड़े तथा दोहरे शरीर के थे। उनके एक ही आँख थी और अपनी वास्तविक उम्र से वे बहुत कम प्रतीत होते थे। उनकी आवाज इतनी मधुर थी कि हमने वैसी आवाज अभी तक नहीं सुनी। अपने जीवन के शेष दस वर्ष या उससे भी कुछ अधिक समय से, वे लोगों को फिर दिखाई नहीं पड़े। उनके दरवाजे के पास कुछ आलू तथा थोड़ासा मक्खन रख दिया जाता था और रात को किसी समय जब वे समाधि में न होकर अपने ऊपरवाले कमरे में होते तो इन चीजों को ले लेते थे। पर जब वे गुफा के भीतर चले जाते तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं रह जाती थी।

इस प्रकार मौन योगसाधना में समाहित उनका वह नीरव जीवन, जिसे पवित्रता, विनय और प्रेम का जीवन्त दृष्टान्त कह सकते हैं, धीरे धीरे व्यतीत होने लगा।

हम पहले ही कह चुके है कि बाहर से धुआँ दीख पड़ने से ही मालूम हो जाता था कि वे समाधि से उठे हैं। एक दिन उस धुएँ में जलते हुए मांस की दुर्गन्ध आने लगी। आसपास के लोग उसके सम्बन्ध में कुछ अनुमान न कर सके कि क्या हो रहा है। अन्त में जब वह दुर्गन्ध असह्य हो उठी और धुआँ भी अत्यधिक मात्रा में ऊपर उठता हुआ दिखाई देने लगा, तब लोगों ने दरवाजा तोड़ डाला और देखा कि उस महायोगी ने स्वयं को पूर्णाहुति के रूप में उस होमाग्नि को समर्पित कर दिया है। थोड़े ही समय में उनका वह शरीर भस्म की राशि में परिणत हो गया।

यहाँ पर हमें कालिदास की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :

''अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम्।
निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्।।'' - कुमारसम्भवम्

“अर्थात् मन्दबुद्धि व्यक्ति महात्माओं के कार्यों की निन्दा करते हैं, क्योंकि ये कार्य असाधारण होते हैं तथा उनके कारण भी सर्वसाधारण व्यक्तियों की विचारशक्ति से परे होते हैं।”

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