लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

1 पाठक हैं

नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


देवी षष्ठी की कथा


प्रियव्रत नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो चुके हैं। उनके पिताका नाम था स्वायम्भुव मनु। प्रियव्रत योगिराज होनेके कारण विवाह करना नहीं चाहते थे। तपस्यामें उनकी विशेष रुचि थी, परंतु ब्रह्माजीकी आज्ञा तथा सत्पयत्नके प्रभावसे उन्होंने विवाह कर लिया। विवाहके पश्चात् सुदीर्घकालतक उन्हें कोई भी संतान नहीं हुई। तब कश्यपजीने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया। राजाकी प्रेयसी भार्याका नाम मालिनी था। मुनिने उन्हें चरु (खीर) प्रदान किया। चरुभक्षण करनेके पश्चात् रानी मालिनी गर्भवती हो गयीं। तत्पश्चात् सुवर्णके समान प्रभावाले एक कुमारकी उत्पत्ति हुई, परंतु सम्पूर्ण अंगोंसे सम्पन्न वह कुमार मरा हुआ था। उसकी आँखें उलट चुकी थीं। उसे देखकर समस्त नारियाँ तथा बन्धवोंकी स्त्रियाँ भी रो पड़ी। पुत्रके असह्य शोकके कारण माताको मूर्छा आ गयी।

राजा प्रियव्रत उस मृत बालकको लेकर श्मशानमें गये और उस एकान्त भूमिमें पुत्रको छातीसे चिपकाकर आँखोंसे आंसुओंकी धारा बहाने लगे। इतनेमें उन्हें वहाँ एक दिव्य विमान दिखायी पड़ा। शुद्ध स्फटिकमणिके समान चमकनेवाला वह विमान अमूल्य रत्नोंसे बना था। तेजसे जगमगाते हुए उस विमानकी रेशमी वस्त्रोंसे अनुपम शोभा हो रही थी। वह अनेक प्रकारके अद्भुत चित्रोंसे विभूषित तथा पुष्पोंकी मालासे सुसज्जित था। उसीपर बैठी हुई मनको मुग्ध करनेवाली एक परम सुन्दरी देवीको राजा प्रियव्रतने देखा। खेत चम्पाके फूलके समान उनका उज्जवल वर्ण था। सदा सुस्थिर तारुण्यसे शोभा पानेवाली वे देवी मुस्करा रही थीं। उनके मुखपर प्रसन्नता छायी थी। रत्नमय आभूषण उनकी छवि बढ़ा रहे थे। योगशास्त्रमें पारंगत वे देवी भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये आतुर थीं। ऐसा जान पड़ता था मानो वे मूर्तिमती कृपा ही हों।

उन्हें सामने विराजमान देखकर राजाने बालकको भूमिपर रख दिया और बड़े आदरके साथ उनकी पूजा और स्तुति की। उस समय वे स्कन्दकी प्रिया देवी षष्ठी अपने तेजसे देदीप्यमान थीं। उनका शान्त विग्रह गीष्मकालीन सूर्यके समान चमचमा रहा था। उन्हें प्रसन्न देखकर राजाने पूछा-'सुशोभने! कान्ते! सुव्रते! वरारोहे! तुम कौन हो, तुम्हारे पतिदेव कौन हैं और तुम किसकी कन्या हो? तुम स्त्रियोंमें धन्यवाद एवं आदरकी पात्र हो।'

जगत्को मंगल प्रदान करनेमें प्रवीण तथा देवताओंको रणमें सहायता पहुँचानेवाली वे भगवती 'देवसेना' थीं। पूर्वसमयमें देवता दैत्योंसे परास्त हो चुके थे। इन देवीने स्वयं सेना बनकर और देवताओंका पक्ष लेकर युद्ध किया था। इनकी कृपासे देवता विजयी हो गये थे। अतएव इनका नाम 'देवसेना' पड़ गया। महाराज प्रियव्रतकी बात सुनकर ये उनसे कहने लगीं-'राजन्! मैं ब्रह्माकी मानसी कन्या हूँ। जगत् पर शासन करनेवाली मुझ देवीका नाम 'देवसेना' है। विधाताने मुझे उत्पन्न करके स्वामी कार्तिकेयको सौंप दिया है। मैं सम्पूर्य मातृकाओंमें प्रसिद्ध हूँ। स्कन्दकी पतिव्रता भार्या होनेका गौरव मुझे प्राप्त है। भगवती मूलप्रकृतिके छठे अंशसे प्रकट होनेके कारण विश्वमें देवी 'षष्ठी' नामसे मेरी प्रसिद्धि है। मेरे प्रसादसे पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीनजन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मोंके उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। राजन्! सुख, दुख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति-ये सब कर्मके अनुसार होते हैं। अपने ही कर्मके प्रभावसे पुरुष अनेक पुत्रोंका पिता होता है

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book