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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

उसके ऐसा कहनेपर भी सीताजीने उसे छोड़ा। तब उसके पति शुकने विनीत वाणीमें उत्कण्ठित होकर कहा-'सीता! मेरी सुन्दरी भार्याको छोड़ दो। इसे क्यों रख रही हो? शोभने! यह गर्भिणी है। सदा मेरे मनमें बसी रहती है। जब यह बच्चोंको जन्म दे लेगी, तब मैं इसे लेकर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' शुकके ऐसा कहनेपर जानकीजीने कहा-'महामते! तुम आरामसे जा सकते हो, किंतु तुम्हारी यह भार्या मेरा प्रिय करनेवाली है। मैं इसे अपने पास बड़े सुखसे अपनी सखी बनाकर रखूँगी।'

यह सुनकर पक्षी दुखी हो गया। उसने करुणायुक्त वाणीमें कहा-'योगीलोग जो बातें कहते हैं वह सत्य ही है-किसीसे कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तो उन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है। यदि हम इस पेड़पर बैठकर वार्तालाप न करते होते तो हमारे लिये यह कथन कैसे प्राप्त होता? इसलिये मौन ही रहना चाहिये था।'

इतना कहकर पक्षी पुनः बोला-'सुन्दरि! मैं अपनी इस भार्याके बिना जीवित नहीं रह सकता, इसलिये इसे छोड़ दो। सीता! तुम बड़ी अच्छी हो। मेरी प्रार्थना मान लो।' इस तरह नाना प्रकारकी बातें कहकर उसने समझाया, परंतु सीताजीने शुकीको नहीं छोड़ा। तब शुकीने पुनः कहा-'सीते! मुझे छोड़ दो, अन्यथा शाप दे दूँगी।'

सीताजीने कहा-'तुम मुझे डराती-धमकाती हो! मैं इससे तुम्हें नहीं छोडूँगी।'

तब शुकीने क्रोध और दुःखमें आकुल होकर जानकीजी को शाप दिया-'अरी! जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पतिसे विलग कर रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणी-अवस्थामें श्रीरामसे अलग होना पड़ेगा।' यों कहकर पतिवियोगके शोकमें उसके प्राण निकल गये। उसने श्रीरामका स्मरण तथा पुनः-पुनः राम-नामका उच्चारण करते हुए प्राण-त्याग किया था, इसलिये उसे ले जानेके लिये सुन्दर विमान आया और वह शुकी उसपर बैठकर भगवान् के धामको चली गयी।

भार्याकी मृत्यु हो जानेपर शुक शोकसे आतुर होकर बोला-'मैं मनुष्योंसे भरी हुई श्रीरामकी नगरी अयोध्यामें जन्म लूँगा और इसका बदला चुकाऊँगा। मेरे ही वाक्यसे उद्वेगमें पड़कर तुम्हें पतिवियोग का भारी दुःख उठाना पड़ेगा।' यह कहकर उसने भी अपना प्राण छोड़ दिया।

(पद्मपुराण)


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