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उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘अब सो जाना चाहिये। कल भी रात मैं बहुत देर तक जागता रहा हूँ।’’
अगले दिन कुलवन्तसिंह ने नीचे सुखिया को कहला भेजा, ‘‘हम भी प्रातः का अल्पाहार माताजी के साथ लेंगे।’’
अतः स्नानादि से अवकाश पा वह, गरिमा और बच्चे नीचे जा पहुँचे। महिमा खाने की मेज के समीप खड़ी मुस्करा रही थी। कुलवन्तसिंह ने हँसते हुए कहा, ‘‘दीदी! यह आँख-मिचौली का खेल अभी भी खेलती हो?’’
‘‘जीजाजी! यह आपके अधीनस्थ अधिकारी खेलना चाहते थे। मैंने उन्हें नहीं खेलने दिया।’’
कुलवन्त ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘‘आखिर आप क्या चाहती है?’’
‘‘मैं ऐसे ही रहना चाहती हूँ जैसी हूँ। मैं अकेली ही सन्तुष्ट हूँ।’’
‘‘परन्तु हमारा कुछ कर्तव्य अपने पुरुखों के प्रति भी तो है। हमें उनके परिवार में सम्मिलित होने का सुख प्राप्त हुआ है। उस परिवार को चलाने का कार्य भी तो हम युवकों के कन्धे पर होता है। उसे क्यों न निभाया जाये?’’
‘‘वह तो मैं तैयार थी। परन्तु अब मेरी इस कार्य में रुचि नहीं है।’’
‘‘तो यह रुचि अब उत्पन्न नहीं हो सकती?’’
‘‘हो सकती है। परन्तु इसके लिये उचित वातावरण और उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये। नौ-दस वर्ष की आवारागर्दी के उपरान्त जब जीवन की छटकन रह गयी है तो इसको भी ऊँचे दाम पर बेचने के लिये यत्न पसन्द नहीं आया।’’
कुलवन्त ने कहा, ‘‘तब तो बात बन गयी है।’’
‘‘क्या बन गयी है?’’ सुन्दरी ने कमरे में प्रवेश करते हुए कुलवन्त का अन्तिम वाक्य सुन लिया था। इससे उसने कुर्सी पर बैठते हुए पूछ लिया था।
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