उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘मैंने कहा, ‘तब तो भाई, तुम मेरी ससुराल के गाँव के कहे जा सकते हो।’
‘तो आपका विवाह बिलासपुर में हुआ है?’’
‘‘मैंने बताया, ‘हाँ, वहाँ के एक रिटायर्ड तहसीलदार हैं पंण्डित भृगुदत्त। मेरा विवाह उनके ही घर में हुआ है।
‘‘इस पर वह कुछ देर आँखें मूँद विचार करता रहा और फिर बोला, ‘‘याद नहीं आ रहा। इस नाम के किसी व्यक्ति को मैं जानता नहीं।’
‘‘मैंने पूछा किसके बेटे हो?’
‘सर्विस-रोल पर पिता का नाम लिखा है। वह एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति हैं। उनको कोई जानता नहीं।’
‘‘मैंने उसके सर्विस रोल में पढ़ा तो उसके पिता का नाम लिखा था पण्डित सुरेश्वर। महिमा दीदी! वह नाम आपके श्वसुर का है न?’’
महिमा यह सब सुन आवाक् बैठी रह गयी थी।
इस समय गरिमा अपने दोनों बच्चों को लिये नीचे आ गयी। बड़ा लड़का बलवन्त इस समय साढ़े-चार वर्ष का था और छोटी लड़की अभी एक वर्ष से कम आयु की ही थी।
कुलवन्त ने लड़की को गोद में ले लिया और उससे बातें करने लगा। बलवन्त उसके घुटनों में आ खड़ा हुआ। गरिमा ने बहन का पीत मुख देखा तो पूछने लगी, ‘‘दीदी! क्या बात है? रंग फीका किसलिए पड़ गया है?’
उत्तर महिमा ने नहीं दिया। वह भौंचक बहन का और अपने जीजा का मुख देखती हुई बैठी थी। कुलवन्तसिंह ने कहा, ‘‘आज एक व्यक्ति कार्यालय में मिला है। वह पायलट है। नाम है अमृतलाल और वह बिलासपुर के एक पण्डित सुरेश्वर का लड़का है। मैंने यह बात सुनायी है तो दीदी कुछ विचार करने लगी हैं।’’
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