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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


रोम की ओर देखो। रोम का ध्येय था साम्राज्यलिप्सा – शक्तिविस्तार। और ज्योंही उस पर आघात हुआ नहीं कि रोम छिन्न-भिन्न हो गया, विलीन हो गया। यूनान की प्रेरणा थी बुद्धि। ज्योंही उस पर आघात हुआ नहीं कि यूनान की इतिश्री हो गयी। और वर्तमान युग में स्पेन इत्यादि वर्तमान देशों का भी यही हाल हुआ है। हर एक राष्ट्र का विश्व के लिए एक ध्येय होता है, और जब तक ध्येय आक्रान्त नहीं होता तबतक वह राष्ट्र जीवित रहता है – चाहे जो संकट क्यों न आये। पर ज्यों ही वह ध्येय नष्ट हुआ कि राष्ट्र भी ढह जाता है।

भारत की सजीवता अभी भी आक्रान्त नहीं हुई है। उसने उसका त्याग नहीं किया है। वह आज भी बलशाली है – अन्धविश्वासों के बावजूद भी। वहाँ भयानक अन्धविश्वास हैं, उनमें से कुछ अत्यन्त जघन्य एवं घृणास्पद हैं – चिन्ता न करो उनकी। पर राष्ट्रीय जीवनधारा – जाति का ध्येय – अभी जीवित है।

भारतीय राष्ट्र कभी बलशाली, दूसरों को पराजित करने वाला राष्ट्र नहीं बनेगा – कभी नहीं। वह कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकेगा, ऐसी शक्ति बनना उसका व्यवसाय ही नहीं – राष्ट्रों की संगीत-संगति में भारत इस प्रकार का स्वर कभी दे ही नहीं सकेगा। पर आखिर भारत का स्वर होगा क्या? वह स्वर होगा ईश्वर, केवल ईश्वर का। भारत उससे कठोर मृत्यु की तरह चिपटा हुआ है। इसलिए वहाँ अभी आशा है।

अतः इस विश्लेषण के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि वे तमाम विभीषिकायें, ये सारे दैन्य दारिद्रय और दुःख विशेष महत्व के नहीं – भारत पुरुष अभी भी जावित है, और इसलिए आशा है।

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