ई-पुस्तकें >> मरणोत्तर जीवन मरणोत्तर जीवनस्वामी विवेकानन्द
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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?
पूर्व-अस्तित्व के सिद्धान्त के विरोध में एक बहुत बड़ी कहलानेवाली यह दलील दी जाती है कि मनुष्यजाति में से अधिकांश को इसका भान नहीं है। इस दलील की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए यह सिद्ध करना चाहिए कि मानवात्मा का सम्पूर्ण अंश स्मरणशक्ति से बद्ध है। यदि स्मृति ही अस्तित्व की कसौटी है, तब तो हमारे जीवन का वह अंश जो अभी उसमें नहीं है, उसका तो अस्तित्व नहीं ही होना चाहिए और हरएक मनुष्य जो बेहोशी की अवसथा में या और किसी तरह अपनी स्मरण-शक्ति को खो बैठता है, वह भी अस्तित्वहीन होना चाहिए। जिन तर्कों के आधार से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि पूर्व- अस्तित्व है - और वह भी सज्ञान कर्म की भूमिका में है (जैसा कि हिन्दू दार्शनिक विद्वान् सिद्ध करते हैं), वे तर्क मुख्यत: ये हैं :-
प्रथमत: इस संसार में जो असमानता है, उसको और किस प्रकार से समझायें? न्यायी और दयानिधान ईश्वर की सृष्टि में एक बालक जन्म लेता है, उसकी हरएक परिस्थिति उसको उत्तम और मानवसमाज के लिए उपयोगी बनाने के लिए अनुकूल है; और सम्भवत: उसी क्षण में और उसी शहर में एक दूसरा बालक जन्म लेता है, जिसकी प्रत्येक परिस्थिति उसके अच्छे बनने के प्रतिकूल है।
हम ऐसे बच्चे देखते हैं जो कि दुःख भोगने के लिए - और सम्भवत: जन्मभर दुःख भोगने के लिए ही - जन्म लेते हैं, और ऐसा उनके स्वयं के किसी अपराध के कारण नहीं होता। ऐसा क्यों होना चाहिए? इसका कारण क्या है? किसकी अज्ञानता का यह परिणाम है? यदि उस बालक का कोई अपराध नहीं है, तो उसके माता-पिता के कर्मों के लिए उसे क्यों दुःख भोगना चाहिए?
यहाँ के दुःख के अनुपात से भविष्य में सुख मिलेगा, ऐसा प्रलोभन दिखाने या ''रहस्यात्मक'' बातें सामने लाने की अपेक्षा तो 'इसका कारण हम नहीं जानते' - यह स्वीकार कर लेना अधिक अच्छा है।
कोई हमें बिना अपराध के जबरदस्ती दण्ड भुगतावे, यह तो नैतिकता के विरुद्ध है - अन्याय तो है ही - ''परन्तु भविष्य काल में पूर्ति होने'' का सिद्धान्त भी लँगड़ा और निराधार है।
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