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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


कुछ पुरुष ऐसे होते हैं, जो मानवसमाज के भविष्यकालीन सम्पूर्ण विकास की कल्पना पहले कर लेते हैं। सम्पूर्ण मानवसमाज जब तक उस पूर्णत्व को न पहुँचे, तब तक राह देखते रहने औऱ पुन:-पुन: जन्म लेने की अपेक्षा, वे जीवन के कुछ ही वर्षों में इन सब अवस्थाओं का अतिक्रमण कर पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। औऱ हम जानते हैं कि इन अवस्थाओं में से हम तेजी से आगे बढ़ सकते हैं, अगर हम केवल आत्मवंचना न करें। असंस्कृत मनुष्यों को अगर हम एक द्वीप पर छोड़ दें और उन्हें कठिनता से पर्याप्त खाने, ओढ़ने तथा रहने को मिले, तो वे धीरे-धीरे उन्नत हो संस्कृति की एक-एक सीढ़ी चढ़ते जायेंगे। हम यह भी जानते हैं कि अन्य विशेष साधनों द्वारा भी इस विकास की गति बढ़ायी जा सकती है। क्या हम वृक्षों के बढ़ने में  मदद नहीं करते? यदि वे निसर्ग पर छोड़ दिये जाते, तो भी वे बढ़ते, अन्तर यही है कि उन्हें अधिक समय लगता। निसर्गत: लगनेवाले समय से कम समय में ही उनकी बाढ़ होने के लिए हम मदद पहुँचाते हैं। कृत्रिम साधनों द्वारा वस्तुओं की बाढ़ द्रुततर करना - यही हम निरन्तर करते आये हैं। तो फिर हम मनुष्य का विकास शीघ्रतर क्यों नहीं कर सकते? समस्त जाति के विषय में हम ऐसा कर सकते हैं। परदेशों में प्रचारक क्यों भेजे जाते है? इसलिए कि इन उपायों द्वारा जाति को हम शीघ्रतर उन्नत कर सकते हैं। तो, अब क्या हम व्यक्ति का विकास शीघ्रतर नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं। क्या हम इस विकास की शीघ्रता की कोई मर्यादा बाँध सकते हैं? यह हम नहीं कह सकते कि एक जीवन में मनुष्य कितनी उन्नति कर सकता है। ऐसा कहने के लिए तुम्हें कोई आधार नहीं कि मनुष्य केवल इतनी ही उन्नति कर सकता है, अधिक नहीं। अनुकूल परिस्थिति से उसका विकास आश्चर्यजनक शीघ्रता से हो सकता है। तो फिर, क्या मनुष्य के पूर्ण विकसित होने के पूर्व उसके विकास की गति की कोई मर्यादा हो सकती है।

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