ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘धन्यवाद! और आप अनुमति दें तो मैं नीरू को भी साथ ले जाऊं…।’ कुछ देर रुककर पारस ने फिर कहा।
द्वारकादास के मस्तिष्क पर मानो किसी ने हथौड़ा दे मारा हो। क्षणभर-भौंचक्का सा पत्थर बना वह पारस की ओर देखता रहा और एकाएक हड़बड़ा कर बोला, ‘नहीं, यह संभव नहीं…।’
‘मां भी बहू को देखने के लिए अत्यन्त व्याकुल है।’ पारस ने अनुरोध किया।
‘वह तो ठीक है…किन्तु इतना बड़ा घर—इसे अकेला छोड़ना भी तो उचित नहीं। द्वारकादास ने यह कहते हुए नीरा की ओर देखा जो चुपचाप दृष्टि झुकाए उनकी बातें सुने जा रही थी।
‘ननद का ब्याह है—और फिर प्रथम बार जाना है—यदि नीरा मेरे संग न गई तो बूढ़ी मां का दिल टूट जाएगा—उस बेचारी का है ही कौन?’
‘इसके लिए उचित समझो तो बहिन के ब्याह के बाद मां को साथ ले आना—कुछ दिन बहू के पास भी रह जाएंगी और बम्बई भी देख जाएंगी।’ द्वारकादास ने कठोर स्वर में अपना निर्णय दिया।
पारस और कुछ कहने का साहस न कर सका और चुपचाप खाना खाने लगा। आज उसे अनुभव हुआ कि धन की दास्ता ने उसे कितना विवश कर दिया था—उसी भावनाओं पर प्रतिबंध लग गया था एक प्रकार का—द्वारकादास की आज्ञा के उल्लंघन का उसमें मनोबल न था। वह केवल उसका घरजमाई न था बल्कि उसी के सहारे आज बहिन का ब्याह करने योग्य हुआ था। इस ब्याह का पूरा खर्च द्वारकादास दे रहा था। उसने एक निस्सहा-सी दृष्टि अपनी पत्नी पर डाली और गंभीर मुद्रा में कुछ सोचने लगा।
खाना खा चुकने के बाद पारस बिना कॉफी पिए ही वहां से उठ गया। द्वारकादास ने उसे रोकने की कोई चेष्टा न की और प्याले के बीच में से नीरा की ओर देखते हुए धीरे-धीरे कॉफी पीने लगा। बड़ी देर तक कमरे में यों ही असहनीय-सा मौन रहा। नीरा शायद पारस की बेबसी पर विचार कर रही थी।
‘अंकल।’ प्याला हाथ से रखते हुए आखिर उसने मौन को तोड़ा।
‘हूं…।’
‘अच्छा होगा यदि आप उन्हें मुझको साथ ले जाने की अनुमति दे दें तो…।’
‘यह तुम कह रही हो नीरू।’ उसने स्वर से रोष प्रकट किया था।
‘जी! उनकी एक ही बहिन है…मैं ब्याह पर न गई तो वे लोग क्या कहेंगे—आपने ब्याह में भी उन्हें नहीं आने दिया दिया।
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