ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘तो क्या हम दोनों के दिल एक नहीं…एक।’ पारस ने आगे आकर उसके कंधों को थामते हुए कहा—‘कहो, नीरू! क्या यह सच नहीं?’
नीरा ने दृष्टि उठाकर पारस की आंखों में देखा। इन आंखों में चाह थी, मिलने की तरंग थी, एक प्यारी भोली-भाली वह छिपी इच्छा थी जो दो प्रेमियों में स्वयं उत्पन्न होती है, उन्हें और निकट लाने के लिए, जो प्राकृतिक साधन है शरीर और आत्मा के मिलन का। मन, दृष्टि में भी तड़प थी, कसक थी किन्तु-कितनी भली, कितनी सुन्दर। वह इस प्रेम के लिए वर्षों से तड़प रही थी और आज, हां आज ही प्रथम बार वह इस प्रेम को पा सकी थी। अचानक उसे अपने कमरे का ध्यान आया वह कमरा जिसमें द्वारकादास के कमरे का द्वार खुलता था—वह भयानक राक्षस सा द्वार, वह कमरा जिसके उजाले में कितनी अपवित्र रातें छिपी थीं, पाप का ग्रहण…नीरा कांप-सी गई…जिसे सेज पर द्वारकादास के पाप के धब्बे लगे हैं…वहीं इस पवित्र प्रेम का खेल भी आरंभ हो? क्षणभर के लिए नीरा का मस्तिष्क झन्ना गया। वह उस कमरे की चहारदीवारी की घुटन में न जाना चाहती थी।
‘क्यों नीरू? तुम्हारा क्या विचार है?’ उसे मौन देखकर पारस ने धीरे से उसके शरीर को झिंझोड़ा।
‘हूं…।’ नीरा मानो जागते हुए बोली—‘मैं तो किसी विशेष सुन्दर समय की प्रतीक्षा कर रही थी।’
‘कौन-सा समय?’ पारस की आंखों में उन्माद बढ़ता जा रहा था।
‘उस समय की जब ये सामने उठती हुई लहरें चन्द्रमा के यौवन को छूने का प्रयत्न करेंगी…ये चन्द्र किरणें और तरंगों का खेल मुझे बड़ा प्यारा लगता है।’
‘किन्तु यह खेल तुम आज न देख सकोगी, इस रंगमंच पर आज यह नृत्य न होगा।’
‘क्यों?’
‘आज तो हमारी प्रेम अभिलाषाओं का नृत्य है…आज तो ये किरणें ईर्ष्या से जली बैठी हैं।’ पारस ने रोमांचित नेत्रों से उनकी ओर देखा और उसकी कमर में हाथ डालकर अपने समीप खींच लिया।
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