ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा का कलेजा धक से रह गया। उसने लड़खड़ाती हुई जबान से कहा—‘आप’ और चुपचाप उसकी ओर देखने लगी, इस एक क्षण में उसके मस्तिष्क ने क्या सोचा होगा इसका हल्का-सा संकेत उसके चेहरे से उड़ गए रंग से मिलता था। पारस उसके निकट आया और उसका मुख ऊपर उठाते हुए बोला—
‘एक दुल्हन ऐसी स्थिति में सुहागरात में कर ही क्या सकती है…जब प्रतीक्षा क्रोध में परिवर्तित हो जाये थक-थककर तो इन फूलों को क्षुब्ध होकर मसलने के अतिरिक्त और चारा ही क्या था।’
‘पारस…।’ नीरा ने हांफते हुए सांस में उसका नाम लिया और अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया। उसे विश्वास हो गया कि वह कुछ नहीं जानता।
पारस ने उंगलियों से उसके उलझे बालों को सुलझाते हुए कहा—‘नीरू! मैं तुम्हारी मनोदशा का भली-भांति अनुमान लगा सकता हूं…किन्तु पूना जाना अत्यन्त आवश्यक था, यदि रात ही पैसे वहां न पहुंचते तो हमारा जंगल का ठेका समाप्त हो जाता।’
‘और रात भर तड़पते हुए मुझे कुछ हो जाता तो।’ नीरा ने धीरे से कहा।
‘तुम्हें कुछ न हो सकता था।’
‘क्यों नहीं?’
‘इसलिए कि रात भर तुम अकेली न थीं।’ पारस ने धीरे से कहा।
नीरा एकाएक उससे अलग हो गई और बोली—
‘तो कौन था मेरे साथ?’
‘मेरी कल्पना—मेरी याद…।’ पारस ने उसके कपोलों को धीरे से थपथपाते हुए पूछा—‘सच बताओ नीरू। क्या रात भर हर क्षण तुम्हारे दिल की हर धड़कन के साथ मेरा नाम न था? क्या तुम्हारी कल्पना में रात भर मेरा प्रतिबिम्ब न था?’
न जाने क्यों नीरा की आंखों में आंसू छलक आये और वह पारस से लिपटकर रोने लगी…इस रुदन में आत्मग्लानि थी या विवशता, पारस ने उसे अपनी सीने से भींच लिया और धीरे से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए सांत्वना देने लगा।
नीरू को इन हाथों के स्पर्श में प्रथम बार कुछ अपनापन अनुभव हुआ। उसे यों लगा जैसे किसी के स्नेह ने, पवित्र स्नेह ने उसके जीवन में पाप की काई को कुरेद दिया हो और प्रेम की गरिमा ने उसका मन हल्का कर दिया हो, उसकी छाती से लगी, उसके हाथों की कोमलता से वह थोड़ी देर के लिए अपने कठोर अतीत को भूल गई और खो गई भविष्य की सुनहरी किरणों में। कांटों से निकलकर फूलों में आ गई।
|