ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
युवक ने पलटकर उसकी ओर देखा और जाने के लिए पांव बढ़ाए ही थे कि नीरा ने पुकारा—‘देखिए।’
युवक रुककर उसे देखने लगा।
‘बुरा न मानें…तो यह छाता…।’ नीरा ने रुकते-रुकते संकोच से छाते की ओर संकेत किया।
‘अवश्य…आइए…।’ नीरा की बात समझते हुए उसने छाता उसके सिर पर कर दिया।
‘कृपया मुझे उस टैक्सी तक…।’
‘जी आइए।’
‘टैक्सी के पास पहुंचकर युवक ने पिछली सीट का दरवाजा खोला और नीरा के बैठते ही लौटने लगा।
‘ठहरिए! आपको कहां जाना है?’
‘पाली हिल…।’ युवक जाते-जाते रुक गया।
‘तो आइए। मैं भी वहीं जा रही हूं…यूनियन पार्क तक।’
युवक ने क्षणभर कुछ सोचा और चुपचाप अगली सीट पर बैठ गया। उसके बैठने से नीरा का भय कम हुआ। इस तूफान में वह टैक्सी पर अकेले जाने से घबरा रही थी।
गाड़ी पानी को चीरती हुई भागती रही और दोनों अपने ध्यान में खोए रहे।
‘क्या आप पैदल ही जा रहे थे?’ बहुत देर मौन रहने के बाद अचानक नीरा ने वार्तालाप आरंभ किया।
‘जी…।’ युवक ने बिना उसकी ओर देखे संक्षिप्त उत्तर दिया।
‘इतनी वर्षा में?’
‘जी…।’
‘क्यों?’
‘और कोई उपाय भी नहीं…।’
‘उपाय?’
‘जी…टैक्सी का भाड़ा…।’
‘कपड़े भीग जाते आपके…।’
‘अच्छा है…भीगने से तो धुल जाते…मैले हो रहे थे…।’
‘और बीमार हो जाते भीगने से तो…।’ नीरा को वार्तालाप चालू रखने में जितना आनन्द आ रहा था उतना ही युवक उसे संक्षिप्त किए जा रहा था।
‘जी नहीं…आदी हूं इसका…।’
नीरा चुप हो गई और सड़क के किनारे रोशनी के खंभों को देखने लगी।
गाड़ी यूनियन पार्क में पहुंचकर नीरा के बंगले की पेर्लर रुक गई, चौकीदार ने आगे बढ़कर द्वार खोला।
‘अंकल नहीं आए क्या?’ नीरा ने उतरते ही पूछा।
‘नहीं मेम साहब…।’
नीरा ने पर्स खोला और टैक्सी का किराया देने के लिए ड्राइवर की ओर बढ़ी। अगली सीट पर बैठा हुआ उसका सहयात्री युवक नीचे उतर गया।
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