ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
पारस ने जेब में रखा दूसरा लिफाफा निकाला और एक तस्वीर नीरा के सामने रख दी। नीरा ने उत्साह से हाथ बढ़ाकर उसे थामा और आश्चर्यपूर्ण दृष्टि से देखने लगी। तस्वीर डबल एक्सपोज हो चुकी थी। उसकी अपनी तस्वीर पर पारस का प्रतिबिम्ब आ गया था। शीघ्रता में उस दिन वह रील का नम्बर घुमाना शायद भूल गई थी। उसकी तस्वीर पर पारस की तस्वीर, यों लग रहा था जैसे वह बेलों के साथ खड़ी है और पारस का सिर उसके वक्ष को छू रहा है।
नीरा कुछ देर तक तस्वीर को बड़ी रुचि से देखती रही और फिर अनायास ठहाका मारकर हंसने लगी।
‘लाइये…इसे नष्ट कर दूं…।’ पारस ने हाथ बढ़ाकर वह तस्वीर उससे लेनी चाही।
‘क्यों?’ नीरा ने तस्वीर को अपनी तस्वीरों के साथ रखते हुए पूछा।
‘अच्छी नहीं…और किसी की दृष्टि पड़ गई तो न जाने क्या समझेगा।’
‘क्या समझेगा?’ नीरा ने भोलेपन से पूछा।
‘यही कि हम दोनों में कोई ऐसा-वैसा सम्बन्ध है।’ उसने रुक-रुककर उत्तर दिया।
नीरा उसके भोलेपन पर हंसने लगी। पारस झेंप गया और बोला—‘आप इसे साधारण बात समझ रही हैं…इस पर ब्लैकमेल हो सकता है।’
‘मुझे आप पर विश्वास है, ऐसा नहीं करेंगे।’ कहते हुए उसने लिफाफा पर्स में रख लिया और मुस्कराकर उसके लिए चाय बनाने लगी।
‘पारस साहब…।’ प्याला उसके हाथ में देती हुई नीरा ने पहली बार उसके नाम से सम्बोधित किया। उसकी आंखों में एक विशेष मोहिनी नाच रही थी।
‘जी…।’
‘आपसे मेरे अंकल सेठ द्वारकादास जी मिलना चाहते हैं…।’
‘मुझसे…किसलिए?’ उसने झेंपते हुए पूछा।
‘मैंने आपके बारे में उनसे कहा था…।’
‘क्या?’
‘श्री पारस खन्ना एक योग्य और विश्वासी व्यक्ति हैं।’
‘किस विषय में।’
‘वह किसी अच्छे व्यक्ति की तलाश में हैं…ऑफिस में मैनेजर का स्थान खाली है…मैंने आपकी सिफारिश की है।’
‘किन्तु…।’
‘किन्तु-विन्तु नहीं…अब भाग्य बनाने के स्वप्न देखिए।’
किन्तु मुझे तो काम मिल चुका है…एक अंग्रेजी फर्म में।’
‘कब?’ नीरा ने झट पूछा।
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