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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘नीरा मुस्करा पड़ी—यह उसके जीवन की अन्तिम मुस्कराहट थी—जो शीघ्र ही मन्द होते हुए समाप्त हो गई। वह धीरे से बोली—

‘तो कह दूं?’

‘हां।’ पारस की आवाज भर्रा गई।

‘अपना प्रश्न वापस ले लो—मुझसे कभी मत पूछना कि मैंने अंकल का खून क्यों किया।’

यह कहकर वह चली गई और उस अंधेरी गली के पास जहां से उसे तख्ते पर जाना था, क्षण भर के लिए रुककर पलटी। पारस ने पुकारा, ‘नीरू’ नीरा ने गर्दन उठाकर उसे देखा और अंधेरे में ओझल हो गई—पारस को सिपाही थाम कर बाहर ले गये।

नीरा को काला चोगा पहना दिया गया और अंधेरी गली से होकर वह मृत्यु से मिलने के लिए आगे बढ़ गई। उसको अंतिम मंजिल को पहुंचाने के लिए हल्की ढोल की थाप पर उसका मन दृढ़ होता जा रहा था। उसके मुख पर एक तेज सा आ गया, एक निखार।

चलते-चलते उसने आंखें बंद कर लीं और भगवान का ध्यान करके मन-ही-मन बोली—

‘है ईश्वर! समाज और समाज के न्याय ने मुझे अपराध का दण्ड दिया है। उनकी दृष्टि में मैं कलंकिनी हूं, मुझे इसका कोई डर नहीं, कोई गिला नहीं। आज मैं तुम्हारे दरबार में आ रही हूं, तुम्हारे सम्मुख, तुम—जिससे संसार का कुछ छिपा नहीं। इस विश्वास से कि तुम्हारे दरबार में यह पाप नहीं, इसका वहां कोई दण्ड नहीं—जो अपराध संसार की दृष्टि में मेरे जीवन का कलंक था। तुम साक्षी हो। वह एक पुण्य था—एक अबला के जीवन का महान पुण्य।’

ढोल की थाप तेज होती गई और फिर होते-होते सन्नाटे में मिल गई। एक जीवन समाप्त हो गया—एक नाटक का अंत हो गया।

रात अंधेरी थी, किन्तु खुले आकाश पर तारे कुछ बातें कर रहे थे। न जाने क्या बातें थीं। वे शायद उस पाप की बातें थीं जो अंधेरे में पुण्य का स्वांग रचकर संसार में रेंगता फिरता है।

।।समाप्त।।


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