ई-पुस्तकें >> कर्म और उसका रहस्य कर्म और उसका रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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कर्मों की सफलता का रहस्य
अतएव, सीखने का पहला पाठ यह है: निश्चय कर लो कि बाहरी किसी भी वस्तु पर तुम दोष न मढो़गे, उसे अभिशाप न दोगे। इसके विपरीत, मनुष्य बनो, उठ खड़े हो और दोष स्वयं अपने ऊपर मढ़ो। तुम अनुभव करोगे कि यह सर्वदा सत्य है। स्वयं अपने को वश में करो।
क्या यह लज्जा का विषय नहीं है कि एक बार तो हम अपने मनुष्यत्व की, अपने देवता होने की बड़ी-बड़ी बातें करें, हम कहें कि सर्वज्ञ हैं, सब कुछ करने में समर्थ हैं, निर्दोष हैं, पापहीन हैं औऱ दुनिया में सबसे नि:स्वार्थी हैंं, और दूसरे ही क्षण एक छोटा सा पत्थर भी हमें चोट पहुँचा दे, किसी साधारण से साधारण मनुष्य का जरा सा क्रोध भी हमें जख्मी कर दे और कोई भी चलता राहगीर 'हम देवताओं' को दु:खी बना दे। यदि हम ऐसे देवता है, तो क्या ऐसा होना चाहिए? क्या दुनिया को दोष देना उचित है? क्या परमेश्वर, जो पवित्रतम औऱ सबसे उदार है, हमारी किसी भी चालबाजी के कारण दु:ख में पड़ सकता है। यदि तुम सचमुच इतने निःस्वार्थी हो, तो तुम परमेश्वर के समान हो। फिर कौन सी दुनिया तुम्हें चोट पहुँचा सकती है? सातवें नरक से भी तुम बिना झुलसे, बिना स्पर्श हुए निकल जाओगे। पर यह बात ही कि तुम शिकायत करते हो और बाहरी दुनिया पर दोष मढ़ना चाहते हो, बताती है कि तुम्हें बाहरी दुनिया का बोध हो रहा है, और इसीसे स्पष्ट है कि तुम वह नहीं हो, जैसा अपने को बतलाते हो। दुःख पर दुःख रचकर और यह मान लेकर कि दुनिया हमें चोट पहुँचाये जा रही है, तुम अपने अपराध को अधिक बड़ा बनाते जाते हो और चीखते जाते हो, ‘अरे बाप रे, यह तो शैतान की दुनिया है! यह मनुष्य मुझे चोट पहँचा रहा है, वह मनुष्य मुझे चोट पहुँचा रहा है’ – आदि आदि। यह तो दुःख पर झूठ का रंग चढ़ाना हुआ। अपनी चिन्ता तो हमें स्वये करनी है। इतना तो हम कर ही सकते हैं। हमें कुछ समय तक दूसरों की ओर ध्यान देने का खयाल छोड़ देना चाहिये। आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें, फिर साध्य अपनी चिन्ता स्वये कर लेगा। क्योंकि दुनिया तभी पवित्र और अच्छी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिये आओ, हम अपने आपको पवित्र बना लें। आओ, हम अपने आपको पूर्ण बना लें।
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