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कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581
आईएसबीएन :9781613012475

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कर्मों की सफलता का रहस्य

कर्म ही उपासना है

सर्वोच्च मानव कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि उसके लिये कोई बंधनकारी तत्व नहीं रह जाता, न आसक्ति और न अज्ञान।

कहा जाता है कि एक बार एक जहाज चुम्बक के पहाड़ के पास जा निकला, जिसमें उसके सारे कील और पेंच खिचकर निकल गये और वह टुकड़े-टुकड़े हो गया। अज्ञान की दशा में ही कर्म का संघर्ष रहता है, क्योंकि हम सब वास्तव नास्तिक हैं। ईश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले कर्म नहीं कर सकते। हम सभी न्यूनाधिक मात्रा में नास्तिक हैं। हम न तो ईश्वर को देखते हैं और न उस पर विश्वास करते हैं। हमारे लिये ई-श्व-र अक्षरों का समूह मात्र या शब्द मात्र है, इससे अधिक कुछ नही।

हमारे जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं, जब हम ईश्वर की समीपता का अनुभव करने लगते हैं, पर पुनः हम नीचे गिर जाते हैं। जब तुमने उसे देख लिया, तब संघर्ष किसके लिये रहेगा? भगवान् की सहायता करना – इसके बारे में हमारी भाषा में एक लोकोक्ति है कि हम विश्व के निर्माता को क्या निर्माण-कला सिखायेंगे? अतः सर्वोच्च कोटि के लोग कर्म नहीं करते। जब कभी फिर तुम ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें सुनो कि हमें भगवान् की सहायता करनी चाहिये अथवा उनके लिये यह करना चाहिये या वह करना चाहिये, तो इस बात को याद रखना ऐसे विचार ही मन में न लाओ, ये अत्यन्त स्वार्थपूर्ण हैं।

तुम जो कुछ भी कार्य करते हो उन सबका सम्बन्ध तुम्हीं से है और उसे तुम अपने ही भले के लिए करते हो। भगवान् किसी खंदक में नहीं गिर गये हैं, जो उन्हें हमारी या तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है, कि हम अस्पताल बनवाकर या इसी तरह के अन्य कार्य करके उनकी सहायता कर सकें। उन्हीं की आज्ञा से तुम कर्म कर पाते हो।

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