ई-पुस्तकें >> कह देना कह देनाअंसार कम्बरी
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आधुनिक अंसार कम्बरी की लोकप्रिय ग़जलें
गुरु जी उस समय शास्त्रीनगर सिन्धी कॉलोनी के एक मकान की तीसरी मंजिल पर रहते थे। उनके घर के नीचे सामने वाली पट्टी पर एक चाय का होटल था। जिसमे रोज़ ही साहित्यकारों, कवियों एवं पत्रकारों की बैठक अथवा अड्डेबाजी हुआ करती थी, जो देर रात तक चलती थी इसके अतिरिक्त उद्योग निदेशालय के संग्रहालय में भी सुधीजनों का आवागमन लगा रहता था। दोनों ही स्थानों पर मुख्य रूप से आने वालों में सर्वश्री सतीश दुबे ‘बापू’, राम कुमार व्दिवेदी, आनन्द शर्मा, अवध बिहारी लाल श्रीवास्तव, राम प्रकाश शुक्ल ‘शतदल’, वी. के. अग्निहोत्री. अनन्त कुमार पाण्डेय, अशोक त्रिपाठी, रंजन अधीर, मृदुल तिवारी, लोकेश शुक्ल, ओम नारायण शुक्ल, कृष्णकान्त अग्निहोत्री, राजेन्द्र तिवारी, हरीकान्त शर्मा, राजेश अरोड़ा, प्रमोद तिवारी, विजय सिन्हा, दीप शर्मा ‘दीप’. सत्य प्रकाश शर्मा, कमलेश व्दिवेदी आदि तथा कभी-कभी आने वालों में सर्वश्री विन्ध्वासिनी सिंह, कमिश्नर इनकम टेक्स, चन्द्रेश गुप्त, राम स्वरुप ‘सिन्दूर’, सुरेश अवस्थी, आज़र मेरठी, विजय किशोर ‘मानव’, हरीलाल ‘मिलन’, कैलाश नाथ त्रिपाठी ‘कंचन’, कुँवर प्रदीप निगम, शिव कुमार सिंह ‘कुँवर’, डॉ. अहमद मेहदी जाफ़री, कमल किशोर ‘श्रमिक’,रामकृष्ण ‘प्रेमी’, विनोद श्रीवास्तव, प्रवीण श्रीवास्तव, अशोक मिश्र आदि-आदि न जाने कितने लोग उनका सानिध्य सुख प्राप्त करते थे और ख़ूब साहित्यक चर्चायें हुआ करती थीं। उस समय नगर में बड़ा ख़ुशगवार साहित्यक माहौल था। शहर भर के साहित्य प्रेमी एवं रचनाकारों के अतिरिक्त कभी-कभी लखनऊ से सर्वश्री विष्णु त्रिपाठी ‘राकेश’. मधुरेश चतुर्वेदी, मुनेन्द्र शुक्ल, निर्मिलेन्द शुक्ल, गुनवीर सिंह राणा आदि भी आ जाया करते थे। इसमें अक्सर बाहर से आये देश के प्रतिष्ठित कविगण जैसे सर्वश्री भारत भूषण, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, किशन सरोज, रामेन्द्र त्रिपाठी, अरुण त्रिवेदी, सुरेन्द्र सुकुमार, सुरेश सलिल, चेतन जी, संदीप सपन, शिवकुमार अर्चन, कमलेश भट्ट ‘कमल’, नित्यानंद तुषार आदि कानपुर में होने पर भाग लेते रहते थे और छोटी-मोटी काव्य गोष्ठियाँ भी हो जाया करती थीं। जिनको नया-नया कविता का शौक़ होता था तो लोग उनसे कह दिया करते थे की भाई ! चौबे जी की काव्य यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लो कविता करना आ जायेगी। उन्हीं कवियों में भाई आज़ाद कानपुरी भी हैं जिन्होंने बाक़ायेदा चौबे जी की शागिर्दी क़ुबूल की या यूँ कहूँ गंडाबंद शिष्य बने। चौबे जी भी उनको बहुत मानते थे। इस पर एक घटना याद आ रही है कि आज़ाद जी आवास विकास, पनकी में प्रत्येक वर्ष एक मई को आज़ाद साहित्यिक संस्था की ओर से कवि-सम्मेलन किया करते थे। उन्होंने उसमें चौबे जी का सम्मान भी किया था तथा ‘एक शाम क़म्बरी के नाम’ से आयोजन भी किया था। एक वर्ष मुझसे उनका कुछ मनमुटाव हो गया तो उन्होंने मुझे कवि-सम्मेलन में नहीं बुलाया और जो कार्ड छपवाया उसमें ज़ाहिर है मेरा नाम नहीं था। जब वह गुरु जी को आमंत्रण देने गये तो उसमें मेरा नाम न देख गुरु जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। संयोग से उसी समय मैं भी वहाँ पहुँच गया। उन्होंने आज़ाद जी से पूछा अंसार का नाम इसमें नहीं है तो आज़ाद जी बोले इनको आयोजन में रखने का इरादा नहीं है यदि आप कहें तो आमंत्रित किये लेता हूँ, उस पर मैंने कहा ! गुरु जी मैं नहीं जाऊँगा। गुरु जी समझ गये कि कोई बात ज़रूर है वरना आज़ाद का आयोजन और अंसार नदारत ऐसा हो ही नहीं सकता। फिर गुरु जी ने जो शब्द हम दोनों से कहे वे मेरे मस्तिष्क पटल को झंकृत कर गये कि “देखो तुम दोनों मेरे दो हाथ हो इसलिये कभी अलग न होना।” उनकी ये वसीयत हम दोनों आज भी निभा रहे हैं।
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