लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान

जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579
आईएसबीएन :9781613013069

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

253 पाठक हैं

हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना

राजन उसकी सादगी पर मुस्कुराया और गठरी उठाकर ऊपर की ओर चल दिया।

जब उसने सीतलवादी में प्रवेश किया तो सर्वप्रथम उसका स्वागत वहीं के भौंकते हुए कुत्तों ने किया – जो शीघ्र ही राजन की स्नेह भरी दृष्टि से प्रभावित हो दुम हिलाने लगे और खामोशी से उसके साथ हो लिए। रास्ते में दोनों ओर छोटे-छोटे पत्थर के मकान थे – जिनके बाहर कुछ लोग बैठे किसी न किसी धंधे में संलग्न थे। राजन धीरे-धीरे पग बढ़ाता जा रहा था मानों सबके चेहरों को पढ़ता जा रहा हो।

वह किसी के कुछ पूछना चाहता था – किंतु उसे लगता था कि जैसे उसकी जीभ तालू से चिपक गई है। थोड़ी दूर चलकर वह एक प्रौढ़ व्यक्ति के पास जा खड़ा हुआ – जो एक टूटी सी खाट पर बैठा हुआ हुक्का पी रहा था। उस प्रौढ़ व्यक्ति ने राजन की ओर देखा। राजन बोला –

‘मैं कलकत्ते से आ रहा हूँ। यहाँ बिल्कुल नया हूँ।’

‘कहो, मैं क्या कर सकता हूँ?’

‘मुझे कंपनी के दफ्तर तक जाना है।’

‘क्या किसी काम से आये हो?’

‘जी! वर्क्स मैनेजर से मिलना है। एक पत्र।’

‘अच्छा तो ठहरो! मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।’ कहकर वह हुक्का छोड़ उठने लगा।

‘आप कष्ट न करिए – केवल रास्ता....।’

‘कष्ट कैसा... मुझे भी तो ड्यूटी पर जाना है। आधा घंटे पहले ही चल दूँगा।’ और वह कहते-कहते अंदर चला गया। तुरंत ही सरकारी वर्दी पहने वापस लौट आया। जब दोनों चलने लगे तो राजन से बोला - ‘यह गठरी यहीं छोड़ जाओ। दफ्तर में ले जाना अच्छा नहीं लगता।’

‘ओह... मैं समझ गया।’

‘काकी!’ उस मनुष्य ने आवाज दी और एक बुढ़िया ने झरोखे से आकर झाँका - ‘जरा यह अंदर रख दे।’ और दोनों दफ्तर की ओर चल दिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book