ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘कहने या न कहने से क्या होता है? एक निर्धन का जीवन तो एक छोटा-सा बुलबुला है, जो जरा से थपेड़े से भी टूट सकता है। वह सब कुछ तुम्हें अपने लिए नहीं बल्कि राजन तथा उसकी बूढ़ी माँ के लिए करना है। इस बलिदान का नाम ही सच्ची लगन है।’
‘तो काका मैं अपना दिल पत्थर के समान कर लूँगी। मैं उसे नष्ट होते नहीं देख सकती। मैं उसके जीवन में एक काली छाया नहीं बनना चाहती।’
‘पार्वती, दूसरे के लिए जीना ही तो जीवन है। वही प्रेम सच्चा है जो निःस्वार्थ हो, जैसे पतंगे का दीपशिखा के प्रति, चकोर का चाँदनी तथा भक्त का भगवान के प्रति।’
पार्वती चुप हो गई। केशव ने स्नेह से भरा अपना हाथ कंधे पर रखा और उसे देख मुस्कुराया। फिर बोला–
‘जाड़ा अधिक होता जा रहा है, अब तुम चलो – आज मैं शीघ्र आ जाऊँगा।’
पार्वती ने दुशाला अच्छी प्रकार से ओढ़ते हुए उत्तर में ठोड़ी हिला दी और सीढ़ियाँ उतर गई।
वह सीढ़ियाँ उतरती नीचे की ओर जा रही थी और उसे लगा रहा था जैसे विगत जीवन की एक-एक बात चलचित्र की भांति उसके सामने आकर मिटती जा रही थी।
उसे लगा – जैसे उसके दिल में कहीं कुछ छिप गया है, धीरे-धीरे कुछ साल रहा है। उसका गला रुँध गया है। जिन सीढ़ियों पर वह कभी हँसी बिखेरती आती थी और दिल में लाती थी राजन से मिलने की उमंगें! अरमान!...उन्हीं सीढ़ियों पर झर रहे थे उसकी आँखों से तप्त तरल आँसू। और दिल में भरी थी दारुण व्यथा। ऐसी टीस, जिसे वह किसी प्रकार सह नहीं पा रही थी।
वह बार-बार आँचल से आँसू पोंछती, धीरे-धीरे पग उठाती सीढ़ियाँ उतरती घर की ओर जा रही थी।
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