ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
प्रथम प्रवचन
ॐ तत् सत् ! ॐ का ज्ञान विश्व के रहस्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना है। ज्ञानयोग का उद्देश्य वही है जो भक्तियोग और राजयोग का है, किन्तु प्रक्रिया भिन्न है। यह योग दृढ़ साधकों के लिए है; उनके लिए है जो न तो रहस्यवादी, न भक्तिमान, अपितु बौद्धिक हैं। जिस प्रकार भक्तियोगी प्रेम और भक्ति के द्वारा उस सर्वोपरि परम से पूर्ण एकता की सिद्धि का अपना मार्ग ढूंढ निकालता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का अपना मार्ग प्रशस्त करता है। उसे सभी पुरानी मूर्तियों को, सभी पुराने विश्वासों और अन्धविश्वासों को और ऐहिक या पारलौकिक सभी कामनाओं को निकाल फेंकने के लिए तत्पर रहना चाहिए और केवल मोक्ष-लाभ के लिए कृतनिश्चय होना चाहिए। ज्ञान के बिना मोक्ष-लाभ नहीं हो सकता है। वह तो इस उपलब्धि में निहित है कि हम यथार्थत: क्या हैं और यह कि हम भय, जन्म तथा मृत्यु से परे हैं। आत्मा का साक्षात्कार ही सर्वोत्तम श्रेयस् है। वह इन्द्रियों और विचार से परे है। वास्तविक 'मैं' का तो ज्ञान नहीं हो सकता। वह तो नित्य ज्ञाता (विषयी) है और कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष का होता है, निरपेक्ष पूर्ण का नहीं। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सभी ज्ञान ससीम है - वह कार्य और कारण की एक अन्तहीन श्रृंखला है। यह संसार एक सापेक्ष संसार है, यथार्थ सत्य की छाया या आभास मात्र है; तथापि चूंकि यह (संसार) संतुलन का ऐसा स्तर है कि जिस पर सुख-दुःख प्राय: समान रूप से संतुलित हैं, इसलिए यही एक स्तर है जहाँ मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप का साक्षात् कर सकता है और जान सकता है कि वह ब्रह्म है।
यह संसार 'प्रकृति का विकास और ईश्वर की अभिव्यक्ति है'। वह माया या नाम-रूप के माध्यम से देखे हुए परमात्मा या ब्रह्म की हमारी व्याख्या है। संसार शून्य नहीं है, उसमें कुछ वास्तविकता है। संसार केवल इसीलिए 'प्रतीयमान' होता है कि इसके पीछे ब्रह्म का 'अस्तित्व' है।
विज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं?
विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।। - बृ. उप. 2/4/14
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