ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
ज्ञानसाधना
- पहले, ध्यान निषेधात्मक प्रकार का होना चाहिए। हर वस्तु को विचारों से निकाल बाहर करो! मन में आनेवाली हर वस्तु का मात्र इच्छा की क्रिया द्वारा विश्लेषण करो।
- तदुपरान्त आग्रहपूर्वक उसकी स्थापना करो, जो हम वस्तुत: हैं - सत्, चित्, आनन्द और प्रेम।
- विषय और विषयी के एकीकरण का साधन है - ध्यान।
- ध्यान करो : ऊपर वह मुझसे परिपूर्ण है, नीचे वह मुझसे परिपूर्ण है, मध्य में वह मुझसे परिपूर्ण है। मैं सब प्राणियों में हूँ और सब प्राणी मुझमें हैं। ॐ तत् सत्, मैं वह हूँ। मैं मन के ऊपर की सत्ता हूँ। मैं विश्व की एकात्मा हूँ। मैं न सुख हूँ न दुःख।
- शरीर खाता है, पीता है इत्यादि। मैं शरीर नहीं हूँ। मैं मन नहीं हूँ। मैं वह हूँ। मैं द्रव्य हूँ। मैं देखता जाता हूँ। जब स्वास्थ्य आता है, तब मैं द्रष्टा होता हूँ। जब रोग आता है, तब भी मैं द्रष्टा होता हूँ।
- मैं ज्ञान का अमृत और सार-तत्व हूँ। चिरन्तन काल तक मैं परिवर्तित नहीं होता। मैं शान्त, देदीप्यमान और अपरिवर्तनीय हूँ।
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