ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जो बाह्य जगत् के लिए सत्य है, वही आभ्यन्तर जगत् पर भी अवश्य लागू होना चाहिए। मन भी अपने को जानना चाहता है, किन्तु यह आत्मा केवल मन के माध्यम से जानी जा सकती है और दीवार की ही तरह अक्षत है। इस आत्मा को हम 'ख' कह सकते हैं और तब कथन इस प्रकार होगा कि 'ख'+ मन अभ्यन्तर अहं है। सर्वप्रथम काण्ट मस्तिष्क के इस विश्लेषण पर पहुँचे थे, किन्तु वेदों में यह बहुत पहले कहा जा चुका था। इस प्रकार चाहे जैसा भी वह हो, हमारे पास 'क' और 'ख के बीच में मन उपस्थित है और दोनों पर प्रतिक्रिया कर रहा है। यदि 'क' अज्ञात है तो जो भी गुण हम प्रदान करते हैं, वे हमारे अपने ही मस्तिष्क से उद्धृत होते हैं। देश, काल और कारणता वे तीन उपाधियाँ हैं, जिनके मध्य मन को प्रत्यक्ष होता है। काल विचार के संप्रेषण की उपाधि है और देश अधिक स्थूल पदार्थ के स्पन्दन के लिए है, कारणता वह अनुक्रम है, जिसमें वे स्पन्दन आते हैं। मन को केवल इन्हीं के द्वारा बोध हो सकता है। अतएव मन से परे की कोई भी वस्तु देश, काल और कारणता से परे अवश्य होगी। अन्धे व्यक्ति को जगत् का प्रत्यक्ष स्पर्श और ध्वनि द्वारा होता है। हम पंचेन्द्रियवाले लोगों के लिए यह एक भिन्न ही जगत् है। यदि हममें से कोई विद्युत्-संवेदना का विकास करे और विद्युत् लहरों को देखने की योग्यता प्राप्त कर ले तो संसार भिन्न दिखायी देगा। तथापि 'क' के रूप में जगत् है, इन सब के लिए समान है। चूकि हर एक अपना पृथक् मन लाता है, वह अपने विशेष संसार को ही देखता है। 'क'+ एक इन्द्रिय, 'क' + दो इन्द्रियाँ और इसी प्रकार, जैसा कि हम मनुष्य को जानते हैं, पाँच तक हैं। परिणाम निरन्तर विविधतापूर्ण होता है, किन्तु 'क' सदैव अपरिवर्तित रहता है। 'ख’ भी हमारे मानसों से निरन्तर परे होता है और देश, काल तथा कारणता से परे हैं।
पर आप पूछ सकते हैं, 'हम कैसे जानते हैं कि दो वस्तुएँ हैं (क और ख) जो देश, काल और कारणता से परे हैं?' बिल्कुल सत्य है कि काल विभेदीकरण करता है जिससे यदि दोनों वास्तव में काल से परे हैं, तो उन्हें वास्तव में अवश्य ही एक होना चाहिए। जब मन इस एक को देखता है, वह उसे भिन्न नाम से पुकारता है - 'क' जब वह बाह्य जगत् होता है और 'ख’ जब वह आभ्यन्तर जगत् होता है। इस इकाई का अस्तित्व है और उसे मन के लेंस से देखा जाता है।
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