ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
अष्टम प्रवचन
सुख और दुःख दोनों ही जंजीरें हैं, एक स्वर्णिम और दूसरी लौह; किन्तु दोनों ही हमें बांधने के लिए एक समान दृढ़ हैं और अपने वास्तविक स्वरूप के साक्षात्कार करने में हमें रोकती हैं। आत्मा दुःख या सुख नहीं जानती। ये तो केवल स्थितियां हैं और स्थितियां अवश्य सदैव बदलती रहती हैं। आत्मा का स्वभाव आनन्द और अपरिवर्तनीय शान्ति है। हमें इसे 'पाना' नहीं है, वह हमें 'प्राप्त’ है। आओ, हम अपनी आँखों से कीचड़ धो डालें और उसे देखें। हमें आत्मा में सदैव प्रतिष्ठित रहकर पूर्ण शान्ति के साथ संसार की दृश्यावली को देखना चाहिए। वह तो केवल शिशु का खेल मात्र है और उससे हमें कभी क्षुब्ध न होना चाहिए। यदि मन प्रशंसा से प्रसन्न हो तो वह निन्दा से दुःखी होगा। इन्द्रियों के या मन के भी सभी आनन्द क्षणभंगुर हैं, किन्तु हमारे अन्तर में एक सच्चा असम्बद्ध आनन्द है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। 'यह आत्मा का आनन्द ही है, जिसे संसार धर्म कहता है।' जितना ही अधिक हमारा आनन्द हमारे अन्तर में होगा, उतने ही अधिक हम आध्यात्मिक होंगे। हम आनन्द के लिए संसार पर निर्भर न हों।
कुछ दीन मछुआ स्त्रियों ने भीषण तूफान में फँसकर एक सम्पन्न व्यक्ति के बगीचे में शरण पायी। उसने उनका दयापूर्वक स्वागत किया, उन्हें भोजन दिया और जिनके सुवास से वायुमण्डल परिपूर्ण था, ऐसे पुष्पों से घिरे हुए एक सुन्दर ग्रीष्मवास में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया। स्त्रियाँ इस सुगन्धित स्वर्ग में लेटीं तो, किन्तु सो न सकीं। उन्हें अपने जीवन से कुछ खोया हुआ-सा जान पड़ा और उसके बिना वे सुखी न हो सकीं। अन्त में एक स्त्री उठी और उस स्थान को गयी जहाँ कि वे अपनी मछली की टोकरियाँ छोड़ आयी थीं। वे उन्हें ग्रीष्मवास में ले आयीं और तब एक बार फिर परिचित गन्ध से सुखी होकर वे सब शीघ्र ही गहरी नींद में सो गयीं। संसार मछली की हमारी वह टोकरी न बन जाय, जिस पर हमें आनन्द के लिए निर्भर होना पड़े। यह तामसिक या तीनों (गुणों) में से निम्नतम द्वारा बँधना है। इनके बाद वे अहंवादी आते हैं जो सदैव 'मैं’ 'मैं' की बात करते हैं। कभी-कभी वे अच्छा काम करते हैं और आध्यात्मिक बन सकते हैं। ये राजसिक या सक्रिय हैं।
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