लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578
आईएसबीएन :9781613013083

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


यदि इन्हें निःस्वार्थ भाव से सम्पन्न किया जाय और उन्हें मात्र रूढ़ि न बना दिया जाय तो वे उपयोगी हैं। वे हृदय को निर्मल करते हैं। कर्मयोगी स्वयं अपनी मुक्ति के पूर्व अन्य सब की मुक्ति चाहता है। उसकी मुक्ति दूसरों की मुक्ति में सहायता देने मात्र में है। 'कृष्ण के सेवकों की पूजा ही सवोंच्च पूजा है।' एक महान् सन्त की यह प्रार्थना रहती थी, 'मैं समस्त संसार के पाप लेकर नरक में चला जाऊँ किन्तु संसार मुक्त हो जाय।' यह सच्ची पूजा तीव्र आत्म-त्याग का मार्ग दिखाती है। एक महात्मा के विषय में कहा जाता है कि वह अपने सब सद्गुण अपने कुत्ते को दे देना चाहते थे, जिससे वह स्वर्ग जा सके। वह कुत्ता दीर्घ काल तक उनका स्वामिभक्त रहा था, और वे स्वयं नरक जाने में भी सन्तुष्ट थे।

ज्ञानकाण्ड यह शिक्षा देता है कि केवल ज्ञान ही मुक्ति दे सकता है, अर्थात् उसे मुक्ति प्राप्ति की पात्रता की सीमा तक ज्ञानी होना चाहिए। ज्ञान, ज्ञाता का स्वयं अपने को जानना, पहला लक्ष्य है। एक मात्र विषयी आत्मा, अपने व्यक्ति रूप में केवल स्वयं को ही खोज रही है। जितना ही अच्छा दर्पण होता है, वह उतनी ही अच्छी प्रतिच्छाया प्रदान करता है। इस प्रकार मनुष्य सर्वोत्तम दर्पण है और मनुष्य जितना निर्मल होगा, उतना ही स्वच्छता से वह ईश्वर को प्रतिबिम्बित कर सकेगा। मनुष्य अपने को ईश्वर से पृथक् करने और देह से अपने को अभिन्न मानने की भूल करता है। यह भूल माया से होती है, जो एकदम भ्रम-जाल तो नहीं है, पर उसे सत्य को जैसा कि वह है वैसा न देखकर किसी अन्य रूप में देखना कहा जा सकता है। अपने को शरीर से अभिन्न मानने से असमता का मार्ग खुलता है, जिससे अनिवार्यतया ईर्ष्या और संघर्ष की उत्पत्ति होती है। और जब तक हम असमता देखते रहेंगे, हम सुख नहीं पा सकते। ज्ञान कहता है कि अज्ञान और असमता ही समस्त दुःख के स्रोत हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book