ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
षष्ठ प्रवचन
विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि 'जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो जाते हैं।' एक समय एक संन्यासी एक पेड़ के नीचे बैठता था और लोगों को पढ़ाया करता था। वह केवल दूध पीता था और फल खाता था और असंख्य प्राणायाम किया करता था। फलत: अपने को बहुत पवित्र समझता था। उसी गाँव में एक कुलटा स्त्री रहती थी। प्रति दिन संन्यासी उसके पास जाता था और उसे चेतावनी देता था कि उसकी दुष्टता उसे नरक में ले जायगी। बेचारी स्त्री अपने जीवन का ढंग नहीं बदल पाती थी, क्योंकि वही उसकी जीविका का एकमात्र उपाय था, फिर भी वह उस भयंकर भविष्य की कल्पना से सहम जाती थी, जिसे संन्यासी ने उसके समक्ष चित्रित किया था। वह रोती थी और प्रभु से प्रार्थना करती थी कि वे उसे क्षमा करें क्योंकि वह विवश थी। कालान्तर में कुलटा स्त्री और संन्यासी दोनों ही मरे। स्वर्ग-दूत आये और उसे स्वर्ग ले गये, जब कि संन्यासी की आत्मा को यमदूतों ने पकड़ा। वह चिल्लाया, ''ऐसा क्यों? क्या मैंने पवित्रतम जीवन नहीं बिताया है और प्रत्येक मनुष्य को पवित्र होने की शिक्षा नहीं दी है? मैं नरक में क्यों ले जाया जाऊँ, जब कि यह कुलटा स्त्री स्वर्ग ले जायी जा रही है।'' यमदूतों ने उत्तर दिया, ''क्योंकि जब वह अपवित्र कार्य करने को विवश थी, उसका मन सदैव भगवान् में लगा रहता था और वह मुक्ति माँगती थी, जो अब उसे मिली है। किन्तु इसके विपरीत तुम यद्यपि पवित्र कार्य ही करते थे, परन्तु अपना मन सदैव दूसरों की दुष्टता पर ही रखते थे, तुम केवल पाप देखते थे और केवल पाप का ही विचार करते थे और इसलिए अब तुम्हें उस स्थान को जाना पड़ रहा है, जहाँ केवल पाप ही पाप है।'' इस कहानी की शिक्षा स्पष्ट है। बाह्य जीवन कम महत्त्व का होता है, हृदय शुद्ध होना चाहिए और शुद्ध हृदय केवल शुभ को ही देखता है, अशुभ को कभी नहीं। हमें मनुष्य जाति के अभिभावक बनने की कभी चेष्टा न करनी चाहिए, न कभी पापियों का सुधार करनेवाले सन्त के रूप में वक्तृता- मंच पर खड़े होना चाहिए। अच्छा हो, यदि हम अपने को पवित्र करें, और फलस्वरूप हम दूसरे की यथार्थ सहायता भी करेंगे।
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