ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
तृतीय प्रवचन
ज्ञान हमें शिक्षा देता है कि संसार को त्यागना चाहिए, किन्तु इसी कारण से उसे छोड़ना नहीं चाहिए। संन्यासी की सच्ची कसौटी है, संसार में रहना किन्तु संसार का न होना। त्याग की यह भावना सभी धर्मों में किसी-न-किसी रूप में सामान्यत: रही है। ज्ञान का दावा है कि हम सभी को समान भाव से देखें - केवल 'समत्व' का ही दर्शन करें। निन्दा-स्तुति, भला बुरा और शीत-उष्ण सभी हमें समान रूप से ग्राह्य होना चाहिए। भारत में ऐसे अनेक महात्मा हैं जिनके विषय में यह अक्षरश: सत्य है। वे हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों पर अथवा मरुभूमि की प्रवाहमयी बालुका पर पूर्ण विवस्त्र और तापमान के अन्तरों से पूर्ण अचेतन जैसे विचरण करते हैं। सर्वप्रथम हमें देह रूप कुसंस्कार को त्यागना है। हम देह नहीं हैं। इसके बाद इस कुसंस्कार को त्यागना चाहिए कि हम मन हैं। हम मन नहीं हैं, यह केवल 'रेशमी देह' है, आत्मा का कोई अंश नहीं। लगभग सभी चीजों में लागू होनेवाले 'देह' शब्द में ऐसा कुछ निहित है जो सभी देहों में सामान्यत: विद्यमान है। यह 'सत्ता' है। हमारे शरीर उन विचारों के प्रतीक हैं जो उनके पीछे हैं और वे विचार भी अपने क्रम में अपने पीछे की किसी वस्तु के प्रतीक हैं, वही एक वास्तविक सत्ता है - हमारी आत्मा की आत्मा, विश्व की आत्मा, हमारे जीवन का जीवन, हमारी वास्तविक आत्मा।
जब तक हममें विश्वास है कि हम ईश्वर से किंचित् भी भिन्न हैं, भय हमारे साथ रहता है।
यदा ह्येवेष एतस्मन्नुदरमन्तरं कुरुते।
अथ तस्य भयं भवति।। - तैत्तरीय उप. 2/6)
किन्तु जब एकत्व का ज्ञान हो जाता- है तो भय नहीं रहता। हम डरें किससे? ज्ञानी केवल इच्छा-शक्ति से जगत् को मिथ्या बनाते हुए शरीर और मन से अतीत हो जाता है। इस प्रकार वह अविद्या का नाश करता है और वास्तविक आत्मा को जान लेता है। सुख और दुःख केवल इन्द्रियों में हैं, वे हमारे प्रकृत स्वरूप का स्पर्श नहीं कर सकते। आत्मा देश, काल और निमित्त से परे है और इसीलिए सीमातीत तथा सर्वव्यापी है।
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