ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
द्वितीय प्रवचन
वेदान्त दर्शन के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक शंकराचार्य थे। ठोस तर्क द्वारा उन्होंने वेदान्त के सत्यों को वेदों से निकाला और उनके आधार पर उन्होंने ज्ञान के उस आश्चर्यजनक दर्शन का निर्माण किया जो कि उनके भाष्यों में उपदिष्ट है। उन्होंने ब्रह्म के सभी परस्परविरोधी वर्णनों का सामंजस्य किया और यह दिखाया कि केवल एक ही असीम सत्ता है। उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि मनुष्य ऊर्ध्व मार्ग का आरोहण शनै:शनै ही कर सकता है। इसलिए विभिन्न उपस्थापनाओं की आवश्यकता उसकी क्षमता की विविधता के अनुसार पड़ती है। ईसा की वाणी में भी हमें कुछ ऐसा ही प्राप्त है। उन्होंने अपने श्रोताओं की क्षमता की विभिन्नता के अनुरूप अपने उपदेश को स्पष्ट ही समायोजित किया है। पहले उन्होंने उनके एक स्वर्गस्थ परम पिता के विषय में और फिर उससे प्रार्थना करने की शिक्षा दी। आगे चलकर वह एक पग और ऊपर उठे और उनसे कहा कि, 'मैं अंगूर की लता हूँ और तुम सब उसकी शाखाएँ हो', और अन्त में उन्होंने परम सत्य का उपदेश दिया- 'मैं और मेरे पिता एक हैं' और 'स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है।' शंकर ने शिक्षा दी कि ये तीन बातें ईश्वर के महान् वरदान हैं :
(१) मानव-शरीर
(२) ईश्वर-लाभ की प्यास और
(३) ऐसा गुरु जो हमें ज्ञानालोक दिखा सके।
जब ये तीन महान् वरदान हमारे अपने हो जाते हैं, तब हमें समझना चाहिए कि हमारी मुक्ति निकट है। केवल ज्ञान हमें मुक्त कर सकता है और हमारा परित्राण भी कर सकता है, लेकिन ज्ञान होते ही शुभ को भी अवश्य हट जाना चाहिए।
वेदान्त का सार है कि सत् केवल एक ही है और प्रत्येक आत्मा पूर्णतया वही सत् है, उस सत् का अंश नहीं। ओस की हर बूँद में 'सम्पूर्ण' सूर्य प्रतिबिम्बित होता है। देश, काल और निमित्त द्वारा आभासित ब्रह्म ही मनुष्य है, जैसा हम उसे जानते हैं; किन्तु सभी नाम-रूप या आभासों के पीछे एक ही सत्य है। निम्न अथवा आभासिक स्व की अस्वीकृति ही नि:स्वार्थता है। हमें अपने को इस दुःखद स्वप्न से मुक्त करना है कि हम यह देह हैं। हमें यह 'सत्य' जानना ही चाहिए कि 'मैं वह हूँ।' हम बिन्दु नहीं जो महासागर में मिलकर खो जायँ, हममें से प्रत्येक 'सम्पूर्ण' सीमाहीन सिन्धु है, और इसकी सत्यता की उपलब्धि हमें तब होगी, जब हम माया की बेड़ियों से मुक्त हो जाएँगे। असीम को विभक्त नहीं किया जा सकता, द्वैतरहित एक का द्वितीय नहीं हो सकता, सब कुछ वही एक है'।
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