ई-पुस्तकें >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
ज्ञानयोग
ज्ञानयोग का परिचय
यह योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष है और बहुत कठिन है, किन्तु मैं आपको इससे धीरे-धीरे अवगत कराऊँगा।
योग का अर्थ है, मनुष्य और ईश्वर को जोड़ने की पद्धति। इतना समझ लेने के बाद आप मनुष्य और ईश्वर की अपनी परिभाषाओं के अनुसार चल सकते है। और आप देखेंगे कि योग शब्द हर परिभाषा के साथ ठीक बैठ जाता है।
सदा याद रखिये कि विभिन्न मानसों के लिए विभिन्न योग हैं और यदि एक आपके अनुकूल नहीं होता तो दूसरा हो सकता है। सभी धर्म, सिद्धान्त और व्यवहार में विभाजित हैं। पाश्चात्य मानस ने सिद्धान्त पक्ष को छोड़ दिया है और वह शुभ कर्मों के रूप में धर्म के केवल व्यावहारिक भाग को ही ग्रहण करता है। योग धर्म का व्यावहारिक भाग है और यह प्रदर्शित करता है कि धर्म न कर्मों के अतिरिक्त एक व्यावहारिक शक्ति भी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनुष्य ने बुद्धि के द्वारा ईश्वर को पाने की चेष्टा की और फलस्वरूप ईश्वरवाद की उत्पत्ति हुई। इस प्रक्रिया से जो कुछ थोड़ा-बहुत ईश्वर बचा, उसको डार्विनवाद और मिलवाद ने नष्ट कर दिया। लोगों को तब तुलनात्मक और ऐतिहासिक धर्म की शरण में जाना पड़ा। वे समझते थे कि धर्म की उत्पत्ति तत्वों की पूजा से हुई। (द्रष्टव्य सूर्य सम्बन्धी कथाओं आदि पर मैक्समूलर)। दूसरे लोगों की धारणा थी कि धर्म पूर्वजों की पूजा से निकला है। (द्रष्टव्य हर्बर्ट स्पेन्सर)। किन्तु सम्पूर्णत: ये पद्धतियाँ असफल सिद्ध हुईं। मनुष्य बाह्य पद्धतियों से सत्य तक नहीं पहुँच सकता।
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