ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
सुधा अब भी काँप रही थी। चन्दर की आवाज में अभी भी वह मुलायमियत नहीं आ पायी थी। वह पानी लाने के लिए उठी।
“नहीं, तुम कहीं जाओ मत, तुम बैठो यहीं।” उसने उसकी हथेली अपने माथे पर रखकर जोर से अपने हाथों में दबा ली और कहा, “सुधा!...”
“क्यों, चन्दर!”
“कुछ नहीं!” चन्दर ने आवाज दी लेकिन लगता था वह आवाज चन्दर की नहीं थी। न जाने कहाँ से आ रही थी...
“क्या सिर में दर्द है? बिनती, एक गिलास पानी लाओ जल्दी से।”
सुधा ने आवाज दी। चन्दर जैसे पहले-सा हो गया-”अरे! अभी मुझे क्या हो गया था? तुम क्या बात कर रही थीं सुधा?”
“पता नहीं तुम्हें अभी क्या हो गया था?” सुधा ने घबरायी हुई गौरेया की तरह सहमकर कहा।
चन्दर स्वस्थ हो गया-”कुछ नहीं सुधा! मैं ठीक हूँ। मैं तो यूँ ही तुम्हें परेशान करने के लिए चुप था।” उसने हँसकर कहा।
“हाँ, चलो रहने दो। तुम्हारे सिर में दर्द है जरूर से।” सुधा बोली। बिनती पानी लेकर आ गयी थी।
“लो, पानी पियो!”
“नहीं, हमें कुछ नहीं चाहिए।” चन्दर बोला।
“बिनती, जरा पेनबाम ले जाओ।” सुधा ने गिलास जबर्दस्ती उसके मुँह से लगाते हुए कहा। बिनती पेनबाम ले आयी थी-”बिनती, तू जरा लगा दे इनके। अरे खड़ी क्यों है? कुर्सी के पीछे खड़ी होकर माथे पर जरा हल्की उँगली से लगा दे।”
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