ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“पहले हम कहेंगे,” बात काटकर सुधा बोली-”पापा, हमने इनसे कहा कि तुम पढ़ाते वक्त बैठा करो, हमें बहुत शरम लगती है, ये कहते हैं पढ़ो चाहे न पढ़ो, हम नहीं बैठेंगे।”
“अच्छा-अच्छा, जाओ चाय लाओ।”
जब सुधा चाय लाने गयी तो डॉक्टर साहब बोले-”कोई विश्वासपात्र लड़का है? अपने घर की लड़की समझकर सुधा को सौंपना पढ़ने के लिए। सुधा अब बच्ची नहीं है।”
“हाँ-हाँ, अरे यह भी कोई कहने की बात है!”
“हाँ, वैसे अभी तक सुधा तुम्हारी ही निगहबानी में रही है। तुम खुद ही अपनी जिम्मेवारी समझते हो। लड़का हिन्दी में एम.ए. है?”
“हाँ, एम.ए. कर रहा है।”
“अच्छा है, तब तो बिनती आ रही है, उसे भी पढ़ा देगा।”
सुधा चाय लेकर आ गयी थी।
“पापा, तुम लखनऊ कब जाओगे?”
“शुक्रवार को, क्यों?”
“और ये भी जाएँगे?”
“हाँ।”
“और हम अकेले रहेंगे?”
“क्यों, महराजिन यहीं सोएगी और अगले सोमवार को हम लौट आएँगे।”
डॉ. शुक्ला ने चाय का प्याला मुँह से लगाते हुए कहा।
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