ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
नहीं, तू बड़ी सुकुवाँर है। तू इन तकलीफों के लिए बनी नहीं मेरी चम्पा!” और गेसू ने उसका सिर अपनी छाती में छिपा लिया।
टन से घड़ी ने साढ़े तीन बजाये।
सुधा ने अपना सिर उठाया और घड़ी की ओर देखकर कहा- “ओफ्फोह, साढ़े तीन बजे गये और अभी तक गायब!”
“किसके इन्तजार में बेताब है तू?” गेसू ने उठकर पूछा।
“बस दर्दे दिल, मुहब्बत, इन्तजार, बेताबी, तेरे दिमाग में तो यही सब भरा रहता है आज कल, वही तू सबको समझती है। इन्तजार-विन्तजार नहीं, चन्दर अभी मास्टर लेकर आएँगे। अब इम्तहान कितना नजदीक है।”
“हाँ, ये तो सच है और अभी तक मुझसे पूछ, क्या पढ़ाई हुई है। असल बात तो यह है कि कॉलेज में पढ़ाई हो तो घर में पढऩे में मन लगे और राजा कॉलेज में पढ़ाई नहीं होती। इससे अच्छा सीधे यूनिवर्सिटी में बी.ए. करते तो अच्छा था। मेरी तो अम्मी ने कहा कि वहाँ लड़के पढ़ते हैं, वहाँ नहीं भेजूँगी, लेकिन तू क्यों नहीं गयी, सुधा?”
“मुझे भी चन्दर ने मना कर दिया था।” सुधा बोली।
सहसा गेसू ने एक क्षण को सुधा की ओर देखा और कहा, “सुधी, तुझसे एक बात पूछूँ!”
“हाँ!”
“अच्छा जाने दे!”
“पूछो न!”
“नहीं, पूछना क्या, खुद जाहिर है।”
“क्या?”
“कुछ नहीं।”
“पूछो न!”
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