ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
सुधा चौंककर उठ गयी और आँखें मलते-मलते बोली, “अब दो बजे हैं? लाये उन्हें या नहीं?”
“ओहो! उन्हें लाये या नहीं किसे बुलाया था रानी, दो बजे; जरा हमें भी तो मालूम हो?” गेसू ने बाँह में चुटकी काटते हुए पूछा।
“उफ्फोह!” सुधा बाँह झटककर बोली, “मार डाला! बेदर्द कहीं की! ये सब अपने उन्हीं अख्तर मियाँ को दिखाया कर!” और ज्यों ही सुधा ने सिर ढँकने के लिए पल्ला उठाया तो देखा कि चोटी डोर में बँधी हुई है। इसके पहले कि सुधा कुछ कहे, गेसू बोली, “या सनम! जरा पढ़ाई तो देखो, मैंने तो सुना था कि नींद न आये इसलिए लड़के अपनी चोटी खूँटी में बाँध लेते हैं पर यह नहीं मालूम था कि लड़कियाँ भी अब वही करने लगी हैं।”
सुधा ने चोटी से डोर खोलते हुए कहा, “मैं ही सताने को रह गयी हूँ। अख्तर मियाँ की चोटी बाँधकर नचाना उन्हें। अभी से बेताब क्यों हुई जाती है?”
“अरे रानी, उनके चोटी कहाँ? मियाँ हैं मियाँ?”
“चोटी न सही, दाढ़ी सही।”
“दाढ़ी, खुदा खैर करे, मगर वो दाढ़ी रख लें तो मैं उनसे मोहब्बत तोड़ लूँ।”
सुधा हँसने लगी।
“ले, अम्मी ने तेरे लिए मिठाई भेजी है। तू आयी क्यों नहीं?”
“क्या बताऊँ?”
“बताऊँ-वताऊँ कुछ नहीं। अब कब आएगी तू?”
“गेसू, सुनो, इसी मंगल, नहीं-नहीं बृहस्पति को बुआ आ रही हैं। वो चली जाएँगी तब आऊँगी मैं।”
“अच्छा, अब मैं चलूँ। अभी कामिनी और प्रभा के यहाँ मिठाई पहुँचानी है।”
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