ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“ये क्या बला है?” चन्दर ने इंक घिसते-घिसते पूछा।
“बड़ी अच्छी चीज होती है; पापा को बहुत अच्छी लगती है। आज हमने सुबह अपने हाथ से बनायी थी। ऐं, खाओगे?” सुधा ने बड़े दुलार से पूछा।
“ले आओ।” चन्दर ने कहा।
“ले आये हम, लो!” और सुधा ने अपने आँचल में लिपटी हुई दो नानखटाई निकालकर मेज पर रख दी।
“अरे तश्तरी में क्यों नहीं लायी? सब धोती में घी लग गया। इतनी बड़ी हो गयी, शऊर नहीं जरा-सा।” चन्दर ने बिगडक़र कहा।
“छिपा करके लाये हैं, फिर ये सकरी होती हैं कि नहीं? चौके के बाहर कैसे लाते! तुम्हारे लिये तो लाये हैं और तुम्हीं बिगड़ रहे हो। अन्धे को नोन दो, अन्धा कहे मेरी आँखें फोड़ीं।” सुधा ने मुँह बनाकर कहा, “खाना है कि नहीं?”
“हाथ में तो हमारे स्याही लगी है।” चन्दर बोला।
“हम अपने हाथ से नहीं खिलाएँगे, हमारा हाथ जूठा हो जाएगा और राम राम! पता नहीं तुम रेस्तराँ में मुसलमान के हाथ का खाते होगे। थू-थू!”
चन्दर हँस पड़ा सुधा की इस बात पर और उसने पानी में हाथ डुबोकर बिना पूछे सुधा के आँचल में हाथ पोंछ दिये स्याही के और बेतकल्लुफी से नानखटाई उठाकर खाने लगा।
“बस, अब धोती का किनारा रंग दिया और यही पहनना है हमें दिनभर।” सुधा ने बिगडक़र कहा।
“खुद नानखटाई छिपाकर लायी और घी लग गया तो कुछ नहीं और हमने स्याही पोंछ दी तो मुँह बिगड़ गया।” चन्दर ने मैपिंग पेन में इंक लगाते हुए कहा।
“हाँ, अभी पापा देखें तो और बिगड़ें कि धोती में घी, स्याही सब लगाये रहती है। तुम्हें क्या?” और उसने स्याही लगा हुआ छोर कसकर कमर में खोंस लिया।
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