ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“बता दो, तुम्हें हमारी कसम है।”
“कल शाम को तुम आये नहीं” सुधा रोनी आवाज में बोली।
“बस इस बात पर इतनी नाराज हो, पागल!”
“हाँ, इस बात पर इतनी नाराज हूँ! तुम आओ चाहे हजार बार न आओ; इस पर हम क्यों नाराज होंगे! बड़े कहीं के आये, नहीं आएँगे तो जैसे हमारा घर-बार नहीं है। अपने को जाने क्या समझ लिया है!” सुधा ने चिढक़र जवाब दिया।
“अरे तो तुम्हीं तो कह रही थी, भाई।” चन्दर ने हँसकर कहा।
“तो बात पूरी भी सुनो। शाम को गेसू का नौकर आया था। उसके छोटे भाई हसरत की सालगिरह थी। सुबह 'कुरानखानी' होने वाली थी और उसकी माँ ने बुलाया था।”
“तो गयी क्यों नहीं?”
“गयी क्यों नहीं! किससे पूछकर जाती? आप तो इस वक्त आ रहे हैं जब सब खत्म हो गया!” सुधा बोली।
“तो पापा से पूछ के चली जाती!” चन्दर ने समझाकर कहा, “और फिर गेसू के यहाँ तो यों अकसर जाती हो तुम!”
“तो? आज तो डान्स भी करने के लिए कहा था उसने। फिर बाद में तुम कहते, 'सुधा, तुम्हें ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए। लड़कियों को ऐसे रहना चाहिए, वैसे रहना चाहिए।' और बैठ के उपदेश पिलाते और नाराज होते। बिना तुमसे पूछे हम कहीं सिनेमा, पिकनिक, जलसों में गये हैं कभी?” और फिर आँसू टपक पड़े।
“पगली कहीं की! इतनी-सी बात पर रोना क्या? किसी के हाथ कुछ उपहार भेज दो और फिर किसी मौके पर चली जाना।”
“हाँ, चली जाना! तुम्हें कहते क्या लगता है! गेसू ने कितना बुरा माना होगा!” सुधा ने बिगड़ते हुए ही कहा। “इम्तहान आ रहा है, फिर कब जाएँगे?”
“कब है इम्तहान तुम्हारा?”
“चाहे जब हो! मुझे पढ़ाने के लिए कहा किसी से?”
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